Thursday, January 08, 2015

आधुनिक मानव और यंत्र निर्भरता

आज के मानव की जो तस्वीर हमें सबसे अधिक दिखाई पड़ती है, वह मानव के पूर्ण रुपेण यांत्रिक निर्भरता की है। आज के दौर में बच्चों से लेकर बूढ़ों तक, सभी मानव यंत्रों से सुसज्जित हैं। एक छोटा सा उदाहरण लेते हैं मोबाइल फोन का; हमें हर हाथ में मोबाइल फोन और मोबाइल फोन का विकसित रुप टैबलेट देखने को मिल जाता हैं; जो जितने छोटे हैं उतने ही तकनीकी सक्षमता लिए हुए हैं। यह एक छोटा सा यंत्र एक साथ कितने ही मषीनों का कार्य संपादित कर देता है- जो हमें अपनों से जोड़ता है, चाहे वे विष्व के किसी भी हिस्से में बैठे हों; छायाचित्रों को ले सकता है, चलचित्रों के निर्माण का काम कर देता है, मल्टीमीडिया के माध्यम से हम अपने संदेष, छायाचित्र, चलचित्र जहां चाहें भेज सकते हैं; रेडियो से गीत सुनना, अपने मन पसन्द संगीत-चलचित्र आदि को सुरक्षित करना। ऐसे अनेक कार्य हम इस एक छोटे से यंत्र के द्वारा करते हैं। मोबाइल फोन की सुविधाओं को देखते हुए इसके विज्ञापन भी कुछ ऐसे कहते हैं: कर लो दुनिया मुट्ठी में; अब अपनों से कैसी दूरी; आप जहां-जहां, हर पल आपके साथ। हाथ में एक छोटा-सा यंत्र हमें पूरी दुनिया से जोड़े रखता है, इसलिए देखने में यही आता है कि आज के आपा-धापी और तकनीकी युग में अधिकांष लोग सुबह से लेकर देर रात तक अपने मोबाइल फोन से चिपके हुए दिखाई पड़ते हैं। कुछ लोगों के लिए तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि उनके लिए और सारी चीजें गौण हैं, बस मोबाइल पर बातें करना ही असली काम है।
         इस तरह सम्पूर्ण विष्व तो हमें हमारे आस-पास प्रतीत होता, लेकिन हम अपने आप से दूर हो गए हैं; हम अपनी मानसिक सोच से दूर हो गए हैं, मस्तिष्क विहीन से हो गए हैं। हम जितने निर्भर होते हैं यंत्रों पर उतने ही यंत्र हम पर सवार हो जाते हैं। जितनी हम उनकी सेवाएं लेते हैं उतनी ही वे हमें अपनी दासता से जकड़ते जाते हैं, गुलाम बना लेते हैं और हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे साथ ऐसा कैसे हो गया। हम जिन भी चीजों का उपयोग करते हैं और पाते हैं कि वे सारी चीजें हमारा उपयोग करने लगी हैं; वे हमारी आदत बन जाती हैं, लत बन जाती हैं। फिर हम उनके बगैर नहीं रह सकते, हम उन पर पूरी तरह निर्भर हो जाते हैं, उनके बगैर अपंग से हो जाते हैं। हम यंत्रों का उपयोग करते-करते एक यंत्र हो गये हैं। कुछ ऐसा है हम पर यंत्रों के सत्संग का असर। जबकि और प्रकृति की चीजों पर दूसरों के संगत का असर नहीं पड़ता, शायद रहीम जी ने अक्षरषः सत्य कहा था-
‘‘जो रहीम उत्तम प्रकृति, का कर सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।’’
     लेकिन हम मनुष्य यंत्रों के सामने विवष प्रतीत होते हैं। उनकी संगति ने हमें अपना दास बना लिया है। ऐसा कैसे और क्यांे होता है? ऐसा शायद इसलिए होता है कि हम उपयोग करते-करते इसे अपनी आदत बना लेते हैं, अपनी नितचर्या बना लेते हैं। आदत की प्रक्रिया ऐसी होती है कि उसके लिए बहुत होष और विवेक की आवष्यकता नहीं रहती है, धीरे-धीरे हमारे होष और विवेक की मात्रा क्षीर्ण होती जाती है। एक समय ऐसा आता है कि होष और विवेक की क्षमता न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाती है। ऐसी दषा में कोई भी यंत्र हम पर पूरी तरह सवार हो जाता है; और हम यांत्रिक मानव बन जाते हैं।
      हम मानवों का मस्तिष्क भी कुछ ऐसा ही है, यह भी एक यंत्र है। जो सभी यंत्रों का राजा है। मस्तिष्क रूपी यंत्र ने सभी यंत्रों के निर्माण में प्रमुख भूमिका और दायित्व का निर्वाहन किया है। हम किसी और यंत्र का उपयोग करें या न करें, लेकिन मस्तिष्क के उपयोग के बिना तो बिलकुल जीवन संभव नहीं है। चूंकि हम अधिकांष समय इसी यंत्र का उपयोग करते रहते हैं तो यह स्वाभाविक ही है कि यह पूरी तरह हमें सम्मोहित करके हमारा मालिक बन जाता है। आज के समय में कोई ऐसा मनुष्य ढूढंना बहुत ही दुर्लभ है जो यंत्रों की गुलामी की जंजीरों में न जकड़ा हो।
      यंत्रों की गुलामी और इसकी दासता हमें पूर्ण रूप से अपंग बना रही है। अगर हमने अभी नहीं चेता तो हमारी आने वाली पीढ़ी पूरी तरह से यांत्रिकी पर ही निर्भर हो जाएगी। उसके लिए तो अपने-आपको समझना मुष्किल हो जाएगा, न ही वह अपनी मर्जी से खा सकेंगे न ही पी सकेंगे। हमें अपनी इस यंत्र निर्भरता को त्यागना ही होगा। हमने यंत्रों का निर्माण अपनी सुविधा के अनुसार किया है, यंत्रों को हम मानवों पर निर्भर होना चाहिए न कि हम मानव यंत्रों पर निर्भर हो जाएं।
       हमारी प्रगति ने यंत्रों की कुषलता बढ़ा दी है, लेकिन हमने यांत्रिकता से ऊपर उठने का कोई कदम नहीं उठाया, और न ही उठा पाने में सक्षम हैं, क्योंकि इन यंत्रों की सुविधाओं के दौर में हम, ‘‘अपने को, अपने विवेक को, अपने विचारों को भूल चुके हैं।’’ यही भूल अत्याधिक विनाषकारी है जो हमें विनाष की तरफ ढकेलती जा रही है।
       अब यह निर्णय हमें लेना है कि हम यंत्रों की गुलामी और इसकी दासता से मुक्त होना चाहते हैं या फिर अपनी ही आंखों से अपनी अपंगता अपनी विवषता के नजारे देखते हुए विनाष की तरफ अग्रसर होना चाहते हैं!

Thanks and Regards
Atul Kumar
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