Saturday, December 18, 2021

वास्तविकता को नजरंदाज करते हमारे प्रधान

 भारत के लिए अभिशाप बनकर आया वह मनहूस जिसने वाडमेर रेलवे स्टेशन बनने से पहले ही चाय बेचनी शुरू कर दी थी वह भी दो रुपए में जब दिल्ली में 50 पैसे में भरपेट नाश्ता मिलता था। उसके इस झूठ पर हम भावनात्मक रूप से मुग्ध हो गये कि यह गरीब परिवार से है और बिना सत्य का आंकलन किये उसके झूठ को, उसके फरेब को सत्य मान बैठे, और अपने परिवार को, अपनी पत्नी को धोखा देने वाले को 2014 में सम्पूर्ण भारत की कमान दे दी और फिर मदारी ने वही राग अलापना, वही डमरू बजाना शुरू किया जिसके खिलाफ वह 2014 से पहले बोलता था। जिसने 2014 से पहले आधार को बकवास योजना बताई थी उसी को जरूरी करार दे दिया। जी एस टी के मूल स्वरूप को भ्रमात्मक व व्यवसायियों की कमर तोड़ने वाला बताया था उसको स्वीकार कर आर्थिकी स्थिति को मजबूत करने वाला बताकर जबरन थोप दिया। डीजल-पेट्रोल की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कीमतों के बढ़ने पर उससे पड़ने वाले अधिभार पर सरकार की विफलता बताने वाला आज पिछले सात वर्षों से मुंह में दही जमाकर बैठा है। मंहगाई कम करना जिसका नारा था अब वह मंहगाई के लिए बेचारा है। अपनी विफलताओं को पिछले 70 साल की जुमलेबाजी में लपेटकर वाहवाही लूटने वाले लूटेरे ने 70 सालों में बने सरकारी संस्थाओं को बेंचकर लूटने का काम किया और उल्टा सवाल करता है कि पिछले 70 सालों में नेहरू और कांग्रेस ने किया क्या है? इतिहास की मानें तो मुगलों ने मंदिरों को लूटा लेकिन इसने तो चौकीदार बनकर अपने आकाओं के साथ बैंकों को लूटा और फिर सरकारी संस्थाओं को बेंच डाला और अब वह...

✍️आजकल वह मैं देश नहीं बिकने दूंगा, जैसी खुबसूरत बातें नहीं करता।


✍️अब वह स्विस बैंकों में जमा काला धन जो अब डबल हो चुका है, पर बात नहीं करता।


✍️अब वो सब के खाते में 15-15 लाख रुपए आने की बात नहीं करता


✍️अब वह डॉलर के मुकाबले गिरते रुपए पर बात नहीं करता, अब वह जिस देश का रुपया गिरता है उस देश के प्रधानमंत्री की इज्जत गिरती है, ऐसी बातें नहीं करता।


✍️अब वह देश की गिरी हुई जी. डी. पी. पर मुंह नहीं खोलता, न अब वह देश में हो रहे बलात्कारों व अत्याचारो पर बात करता है।


✍️अब वो दागी मंत्रियों व नेताओं पर बात नहीं करता।


✍️अब वह महिलाओं की सुरक्षा व जमाखोरी पर बात नहीं करता।


✍️अब वह मिलावटखोरी पर बात नहीं करता, न अब वह रिश्वतखोरी पर बात करता है।


✍️अब वह स्मार्ट सिटी बनाने की बात नहीं करता, न ही अब वो बुलेट ट्रेन की बात करता है। अब तो वह अच्छे दिनों की भी बात नहीं करता।


✍️अब वह किसानों की आय दोगुनी करने की बात नहीं करते, अब तो वह बेरोजगारों को रोजगार देने की भी बात नहीं करते। अब वो सबको शिक्षा सबको रोजगार की बात भूल ही गये हैं।


✍️अब वह डीजल-पेट्रोल पर बात नहीं करते, गैस सिलेंडर के आए दिनों बढ़ते दामों पर तो बात ही नहीं करना चाहते!


✍️अब वह रेलवे व अन्य यातायात के साधनों पर बढ़ते किराए पर बात नहीं करता, वह हवाई चप्पल पहनने वालों को हवाई यात्रा कराने की भी बात नहीं करता।


✍️अब वह खाद्य पदार्थों पर बेहताशा बढ़ती महंगाई पर नहीं करता, अब वह बढ़ती हुई महंगाई पर मौन व्रत धारण किए हुए हैं।


✍️अब वह देश में बढ़ती बेरोजगारी पर बात नहीं करता। अब वह साल में 2 करोड रोजगार देने की बात नहीं करता। 


✍️अब वह जनता को राहत देने की बात के लिए मुंह नहीं खोलते न ही अब वो सब को न्याय देने की बात करते हैं।


✍️अब वह चीन को लाल आंखें दिखाने की बात नहीं करते... अब तो वह एक के बदले 10 सिर लाने की बात भी नहीं करते।


सोचिए क्यों..? आखिर क्यों बात तक नहीं करते उन सभी मुद्दों पर जिनके बल पर देश की सर्वोपरि आसन पर बिठाया गया, आखिर क्यों? पहले भी उनकी कोई भी बात में गंभीरता न थी क्योंकि यह और इनका पितृ संगठन केवल भारत को साम्प्रदायिकता में झोंकने के लिए गंभीर रहा है। इनका मकसद सिर्फ सत्ता सुख हासिल करना है, वास्तविक मुद्दों और जमीनी हकीकत से इनका कोई लेना-देना नहीं है। जय हिन्द... जय भारत।

Saturday, June 06, 2020

बच्चों और पत्नी की हत्या कर खुद को लगाती फांसी।


👉  तीन मासूमों और पत्नी की हत्या कर पति ने आखिर क्योंकि आ




त्महत्या?
✍️ इन हत्याओं का आखिर गुनहगार कौन?
✍️ घर का मुख्य दरवाजा एक फिर भी अपने बेटे-बहू और मासूम बच्चों से मतलब क्यों नहीं?
✍️ आखिर 30-35 लाख की कर्जदारी किसकी और किस आधार पर दिया?
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से सटे  बाराबंकी जिले सफेदाबाद कस्बे में जहां एक पिता ने अपनी तीन मासूम बच्चों और पत्नी की हत्या करने के बाद खुद को फांसी पर लटका कर जीवन लीला को समाप्त कर लिया। मौके पर पहुंची फॉरेंसिक टीम और पुलिस ने टूटा हुआ मोबाइल फोन, चाकू और शराब की बोतलें बरामद की है। इसके अलावा पुलिस प्रॉपर्टी डीलिंग का काम करने वाले मृतक विवेक शुक्ला के तार प्रॉपर्टी कारोबार के सूत्रों को भी ढूंढ रही हैं। बरामद सुसाइड नोट में पति-पत्नी के एक साथ हस्ताक्षर होने की बात कही जा रही है, जो कि जांच का विषय है। यदि ऐसा था तो विवेक अपनी पूरी समस्या पत्नी को बताता था जहाँ कर्ज का शोर उसके परिवार में अंदरूनी कलह उन दोनों को झकझोर रही थी। इसलिए शायद विवेक ने ऐसा कदम उठाया।
विवेक शुक्ला की फंदे से लटकती लाश और बेड पर पड़े मासूमों और पत्नी की लाशों की पुलिस जांच कर रही है। वहीं इस वारदात के फौरन बाद मृतक के पिता ने विवेक शुक्ला पर ही प्राथमिकी दर्ज करा दी है। घर में पसरे सन्नाटे का शोर और गांव में चहल कदमी करती सनसनी से लोग हैरत में पड़ गए हैं। विवेक की जिंदगी किसी ड्रामे से कम नहीं थी, सोचकर देखिये जो कभी नोटों के बिस्तर पर सोता हो, जिसकी एक खूबसूरत पत्नी और फूल जैसे तीन मासूम बच्चे, जिनमे 2 बेटियां और एक बेटा, इतना सबकुछ होने के बावजूद क्या कोई अपने परिवार को आसानी से खत्म कर देगा? करता परिवार की माली हालत इतनी खराब हो गयी कि सब कुछ मिटा देना विवेक को आसान लगा? हालांकि पुलिस गहनता से मामले की जांच में जुटी है।
विवेक के घर वालों के मुताबिक विवेक ने प्रेम विवाह किया था, जिनसे तीन बच्चे थे जिनकी पढ़ाई लखनऊ के हाई फाई स्कूल में चल रही थी। उधर पुलिस को मिले सुसाईड नोट के अनुसार विवेक ने लिखा है कि वह परिवार के लिए कुछ नहीं कर पाया इस लिए ऐसा कदम उठाया। वहीं पुलिस की माने तो सुसाइड नोट पर दंपती के हस्ताक्षर हैं। इसके अलावा कमरा बंद था एoसी0 चल रही थी। प्रथम दृष्टया मृतक विवेक ने पत्नी और 3बच्चों को मारने के बाद खुदकुशी की है। जबकि कर्ज कितना था, किससे लिया गया था इसका जिक्र सुसाईड नोट में नहीं है लेकिन करोड़ों रुपए के कर्ज की आशंका जरूर जताई जा रही है। वहीं मौक़े पर डॉग स्क्वॉयड वहाँ तक गया जहाँ मृतक विवेक आया-जाया करता था।
विवेक शुक्ला के इस खौफनाक कदम और बिस्तर पर पड़ी लाशें... कमरे की व्यवस्था देख ऐसा लग रहा है विवेक अपने परिवार से बहुत प्यार करता था। लग्जरी कमरा सारे ऐशोआराम। लेकिन सवाल यह है कि ऐसा क्या हुआ की अचानक सबकुछ तबाह हो गया।
घर में एक ही मेनगेट, आने जाने का एक ही दरवाजा, पूरे परिवार के सदस्यों का एक ही निकास था। फिर भी किसी को कुछ पता नहीं, ऐसी अनभिज्ञता... और इसी बीच उस घर में हरा-भरा परिवार जो अब खत्म हो चुका। कमरे के अंदर बिस्तर पर पड़ी पत्नी सहित तीन बच्चों लाशें, खुद रस्सी से लटकी विवेक की लाश। घर के बाहर जमा लोगों की भीड़, मौके पर जांच करती पुलिस डॉग स्क्वायड और फिंगर्स  प्रिंट एक्सपर्ट की टीम... एक तबाह परिवार की कहानी बयां कर रही है।
5 जून 2020 दिन शुक्रवार को घटना के बाद से पूरे इलाके में दहशत गमज़दी का माहौल है, घटना की सूचना पा मौके पर पहुँचकर पुलिस के आला अधिकारियों ने घटनास्थल का जायजा लिया।
अयोध्या परिक्षेत्र के डीआईजी संजीव गुप्ता, पुलिस अधीक्षक अरविंद चतुर्वेदी, जिलाधिकारी डॉक्टर आदर्श सिंह, सदर तहसील के एसडीएम अभय पांडे, सीओ सुशील कुमार सिंह सहित कोतवाल पंकज सिंह मौके पर पहुंचे।
बाराबंकी जिले की कोतवाली नगर सफेदाबाद कस्बे में घर के अंदर दाखिल पुलिस और एक साथ पांच लाशें... एक बड़ी वारदात का उदाहरण पेश कर गयी है। दरअसल एक शख्स जिसका हंसता खेलता परिवार तबाह हो गया, कोरोना महामारी और लॉक डाउन के बीच... लगातार बढ़ते कर्ज के बोझ तले दबते जा रहे एक पिता ने अपने परिवार को दुनिया के सामने दर-दर की ठोकरें खाने से पहले ही मौत की नींद सुला खुद फांसी पर लटक जाना ज्यादा मुनासिब समझा।
कमरे के अंदर बेड पर पड़ी चार और पंखे के हुक से  न एक लटकती लाश आपको विचलित कर सकती हैं, और वारदात की हकीकत जानकर आपके पैरों के नीचे से जमीन खिसक जाएगी की विवेक शुक्ला जो अपनी पत्नी और बच्चों से बेहद प्यार करता था और जिस तरह से विवेक ने यह खौफनाक कदम उठाया उससे तो यही लग रहा है कि वह खुद अगर फांसी के फंदे से लटकता तो उसका परिवार और समाज उसे कोसता, जिस कारण उसने अपने परिवार को दर-दर की ठोकरें खाने से पहले ही पत्नी, पुत्र और 2 पुत्रियों को मार कर खुद फांसी पर लटक गया।
लोगों की माने तो विवेक शुक्ला बेहद खुश मिजाज और मिलनसार व्यक्ति था। जीवन यापन के लिए हाल ही में एक गैराज खोलकर अपने रोजगार की शुरुआत की इसके अलावा विवेक शुक्ला मोबाइल रिपेयरिंग के साथ-साथ अन्य कई निजी रोजगार करता था। विवेक शुक्ला ने लगभग 12-13 साल पहले थाना जहांगीराबाद के फैजुल्लागंज निवासी शेष कुमार वर्मा की पुत्री अनामिका से प्रेम विवाह किया था, जिनसे दो पुत्रियां एक पुत्र थे। परिवार में पांच लोग थे- मृतक विवेक शुक्ला, उसकी पत्नी अनामिका और उनकी दो बेटियां पोयम शुक्ला (10 वर्ष), रितु शुक्ला (7 वर्ष) और एक लड़का बबल शुक्ला (5 वर्ष)। मृतक के भाई ने बताया कि शादी के बाद से विवेक के रिश्ते माता-पिता और भाई से सामान्य नहीं थे। वह अपने परिवार के साथ अलग रहता था। विवेक की मां ने जब दो दिन से उन्हें बाहर नहीं देखा तो वो खुद ही उसके कमरे तक गयी, बेटे को फांसी पर झूलता देख उन्होंने बाकी परिवार को सूचना दी। दरवाजा तोड़ने के बाद का मंजर देखकर सब हैरान रह गए। उन्होंने तुरंत पुलिस को जानकारी दी और पुलिस ने मौके पर पहुंचकर जांच-पड़ताल शुरू कर दी। मृतक विवेक के पिता के मुताबिक उसका कमरा दो दिन से बंद था, लेकिन कमरे का एसी चल रहा था। दरवाजा खटखटाने और आवाज देने के बाद भी जब कोई आहट नहीं हुई तो दरवाजा तोड़ा गया। विवेक के माता-पिता और परिवार का कहना है कि उसने ऐसा कदम क्यों उठाया, इस बारे में उन्हें किसी प्रकार की कोई जानकारी नहीं है।
विवेक के भाई के मुताबिक उन्हें आस-पास के लोगों से पता चला कि विवेक की माली हालत अच्छी नहीं थी, उन पर इस वक्त 30 से 35 लाख का कर्ज था। वहीं लोगों को आशंका है कि मृतक विवेक पर करोड़ों रुपए का कर्ज हो चुका था जिसे चुकाने में वह असमर्थ हो गया था। लॉकडाउन और कोरोना महामारी के बीच प्रॉपर्टी के बंद कारोबार को लेकर विवेक काफी हताश और निराश होने के साथ ही साथ अंदर से टूट भी चुका था। उसके परिवार को भी नहीं पता है कि इस वक्त वो क्या करता था। आशंका जताई जा रही है कि आर्थिक रूप से मुश्किल दौर से गुजर रहे दंपती ने बच्चों के साथ आत्महत्या का खौफनाक कदम उठाया है।
पुलिस इस मामले में सभी दृष्टिकोण से अलग-अलग जांच कर रही है। सुसाइड नोट की लिखावट की भी जांच की जा रही है। रिश्तेदारों से भी पूछताछ की जा रही है। साथ ही साथ पुलिस तथ्यों के आधार पर छानबीन में जुटी है।
मृतक की मां ने बताया कि उनके बेटे ने दूसरी कास्ट की लड़की से शादी की थी। लेकिन उससे घरवालों को कोई परेशानी नहीं थी। उनका लड़का शादी के बाद से ही अलग रहता था और घर से कोई मतलब नहीं रखता था। उसने ऐसा कदम क्यों उठाया, इसकी कोई जानकारी नहीं है। वहीं मृतक के पिता के मुताबिक दो दिनों से कमरा बंद था औऱ एसी चल रहा था। हमें चिंता हो रही थी कि आखिर ये लोग बाहर क्यों नहीं निकल रहे हैं। लेकिन वह हम लोगों से मतलब नहीं रखते थे। लेकिन शुक्रावार को सुबह छत से जाकर देखा कि लड़का फांसी से लटक रहा है। फिर हमारे दूसरे लड़के ने कमरे का दरवाजा तोड़कर सबको घटना की जानकारी दी।
एएसपी अरविंद चतुर्वेदी ने बताया कि परिवार के पांच लोगों की मौत हुई है। पति-पत्नी ने पहले तीन बच्चों को मारा फिर खुद भी आत्महत्या कर ली। मामले की जांच पुलिस कर रही है। जल्द ही घटना का खुलासा किया जाएगा।
✍️ RJ अतुल श्रीवास्तव
बाराबंकी।

Saturday, September 15, 2018

अवैध अवैध कमाई से अरबों का मुनाफा दिखाता है उत्तर प्रदेश का परिवहन निगम:


वैसे तो उत्तर प्रदेश परिवहन निगम यात्री देवो भव: का राग अलापता रहता है परंतु यात्रियों की सुविधाओं से कोई मतलब नहीं होता यह बात ठीक वैसे है जैसे कि हाथी के दिखाने वाले दांत। इसका ताजा उदाहरण कैसरबाग से बहराइच जा रही बाराबंकी डिपो की बस संख्या यूपी 75 ऍम 5729 मैं देखने को मिला जब एक यात्री की बस किसी कारण से छूट गई थी, जिसे 5729 के परिचालक ने गंतव्य का टिकट देख कर और उसकी आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए बिठा तो लिया परन्तु देवीपाटन पर क्षेत्र के यातायात निरीक्षक राम मनोरथ और उनके साथी के0 सोनकर सहकर्मियों ने कैसरगंज के आगे टोल प्लाजा पर लगभग 11:30 बजे बस निरीक्षण किया तो निरीक्षण के दौरान उस यात्री का टिकट देखने के बाद भी उस यात्री को बिना टिकट मानते हुए उसका टिकट बनवाया और उस पर जबरदस्ती ₹50 की पेनल्टी भी लगाई, वो भी गाड़ी में सवार 35 यात्रियों के दबाव में नहीं तो यह पेनाल्टी टिकट के 10 गुने की होती। उस बस के परिचालक ने बताया कि यदि यात्रियों के द्वारा बीच में नहीं बोला गया होता तो ₹748 मुझे जमा करने पड़ते और डब्लू टी का केस खत्म कराने के लिए अभी ₹500 डिपो पर और देने पड़ेंगे।
अब सवाल यह उठता है कि निगम की साधारण बसों में जब किराया एक समान होता है और धनराशि भी निगम कोष में ही  जमा होती है तो इस तरह की लालफीताशाही की मार यात्रियों और परिचालकों को क्यों झेलनी पड़ती है? वहीँ निगम अपनी बस बीच रास्ते में खराब हो जाने पर यात्रियों को घंटों इंतजार करवाता है और अगली बस के लिए बोलता है कि अगली बस आने दीजिए ट्रांसफर दिलवाया जाएगा। क्या उतनी ही सुविधा जो कि मात्र बैठने भर की होती है यात्रियों को मिल पाएगी पीछे से आने वाली बस में, वह तो पहले से ही यात्रियों से भरी होगी।
टिकट होने पर भी दूसरी बस में बैठने पर निगम के लाइसेंस धारी लुटेरे जिन्हें निगम प्रशासन ने यातायात निरिक्षण की जिम्मेदारी सौंपी है, यात्रियों को बिना टिकट मान लेते हैं, तो दूसरी बस में ट्रांसफर पर रोक क्यों नहीं लगाते? और क्यों नहीं दूसरीखाली बस का इंतजाम करवाते?
निगम प्रशासन से लेकर विभागीय मंत्री तक को सिर्फ यही लगता है कि परिचालक वो भी यदि संविदा का है तो चोर होता है और यात्री भी दस-बीस रुपये बचाने की कोशिश करता है, परन्तु वो यह नहीं जानना चाहते हैं डिपो में तैनात ड्यूटी रूम से लेकर सभी पटलों पर निगम के जो अपने सगे बेटे बैठे हैं बिना दाम लिए काम नहीं करना चाहते, और सड़क पर घूम रहे टी०यस०/ टी०आई० जिन्हें हाथों में डायरी थमा दी गई है, और जिम्मेदारी दी गई है कि यातायात व्यवस्था को सुगम बनाने और यात्रियों की सुविधा को ध्यान में रखे, सिर्फ वसूली का मकसद ध्यान रहता है। नहीं तो मनमाने ढंग से यात्रियों पर, संविदा परिचालकों पर दबाव बना कर निगम कोष में काली कमाई को जमा कराने का काम कारते हैं।
निगम प्रशासन की खास बात यह है कि इसे संविधान की, न्यायालयों के आदेशों की, श्रम नियमावली से कोई लेना-देना नहीं, इसके सारे के सारे नियम और कानून  अपने फायदे के लिए होते हैं। प्रदेश में हर 5-10 साल में सरकारें बदलती रहती हैं, जो सुधार और विकास के बड़े-बड़े दावे करती हैं चुनाव से पहले और सत्ता में आने के बाद उसी सरकार और सरकार के मंत्री सब कुछ जानने के बाद भी आँख और कान बंद कर सिर्फ माहवारी का इन्तजार करते हैं। इन्हें यात्रियों की सुवुधाओं से, संविदा परिचालकों के भविष्य से, संविदा परिचालक के जीवन स्तर से कोई लेना-देना नहीं। निगम प्रशासन और विभागीय मंत्री को सालाना अरबों की कमाई से मतलब है, बाकी चाहे वर मरे या कन्या वही कहावत को चरित्रार्थ होना है।

Thursday, January 08, 2015

आधुनिक मानव और यंत्र निर्भरता

आज के मानव की जो तस्वीर हमें सबसे अधिक दिखाई पड़ती है, वह मानव के पूर्ण रुपेण यांत्रिक निर्भरता की है। आज के दौर में बच्चों से लेकर बूढ़ों तक, सभी मानव यंत्रों से सुसज्जित हैं। एक छोटा सा उदाहरण लेते हैं मोबाइल फोन का; हमें हर हाथ में मोबाइल फोन और मोबाइल फोन का विकसित रुप टैबलेट देखने को मिल जाता हैं; जो जितने छोटे हैं उतने ही तकनीकी सक्षमता लिए हुए हैं। यह एक छोटा सा यंत्र एक साथ कितने ही मषीनों का कार्य संपादित कर देता है- जो हमें अपनों से जोड़ता है, चाहे वे विष्व के किसी भी हिस्से में बैठे हों; छायाचित्रों को ले सकता है, चलचित्रों के निर्माण का काम कर देता है, मल्टीमीडिया के माध्यम से हम अपने संदेष, छायाचित्र, चलचित्र जहां चाहें भेज सकते हैं; रेडियो से गीत सुनना, अपने मन पसन्द संगीत-चलचित्र आदि को सुरक्षित करना। ऐसे अनेक कार्य हम इस एक छोटे से यंत्र के द्वारा करते हैं। मोबाइल फोन की सुविधाओं को देखते हुए इसके विज्ञापन भी कुछ ऐसे कहते हैं: कर लो दुनिया मुट्ठी में; अब अपनों से कैसी दूरी; आप जहां-जहां, हर पल आपके साथ। हाथ में एक छोटा-सा यंत्र हमें पूरी दुनिया से जोड़े रखता है, इसलिए देखने में यही आता है कि आज के आपा-धापी और तकनीकी युग में अधिकांष लोग सुबह से लेकर देर रात तक अपने मोबाइल फोन से चिपके हुए दिखाई पड़ते हैं। कुछ लोगों के लिए तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि उनके लिए और सारी चीजें गौण हैं, बस मोबाइल पर बातें करना ही असली काम है।
         इस तरह सम्पूर्ण विष्व तो हमें हमारे आस-पास प्रतीत होता, लेकिन हम अपने आप से दूर हो गए हैं; हम अपनी मानसिक सोच से दूर हो गए हैं, मस्तिष्क विहीन से हो गए हैं। हम जितने निर्भर होते हैं यंत्रों पर उतने ही यंत्र हम पर सवार हो जाते हैं। जितनी हम उनकी सेवाएं लेते हैं उतनी ही वे हमें अपनी दासता से जकड़ते जाते हैं, गुलाम बना लेते हैं और हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे साथ ऐसा कैसे हो गया। हम जिन भी चीजों का उपयोग करते हैं और पाते हैं कि वे सारी चीजें हमारा उपयोग करने लगी हैं; वे हमारी आदत बन जाती हैं, लत बन जाती हैं। फिर हम उनके बगैर नहीं रह सकते, हम उन पर पूरी तरह निर्भर हो जाते हैं, उनके बगैर अपंग से हो जाते हैं। हम यंत्रों का उपयोग करते-करते एक यंत्र हो गये हैं। कुछ ऐसा है हम पर यंत्रों के सत्संग का असर। जबकि और प्रकृति की चीजों पर दूसरों के संगत का असर नहीं पड़ता, शायद रहीम जी ने अक्षरषः सत्य कहा था-
‘‘जो रहीम उत्तम प्रकृति, का कर सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।’’
     लेकिन हम मनुष्य यंत्रों के सामने विवष प्रतीत होते हैं। उनकी संगति ने हमें अपना दास बना लिया है। ऐसा कैसे और क्यांे होता है? ऐसा शायद इसलिए होता है कि हम उपयोग करते-करते इसे अपनी आदत बना लेते हैं, अपनी नितचर्या बना लेते हैं। आदत की प्रक्रिया ऐसी होती है कि उसके लिए बहुत होष और विवेक की आवष्यकता नहीं रहती है, धीरे-धीरे हमारे होष और विवेक की मात्रा क्षीर्ण होती जाती है। एक समय ऐसा आता है कि होष और विवेक की क्षमता न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाती है। ऐसी दषा में कोई भी यंत्र हम पर पूरी तरह सवार हो जाता है; और हम यांत्रिक मानव बन जाते हैं।
      हम मानवों का मस्तिष्क भी कुछ ऐसा ही है, यह भी एक यंत्र है। जो सभी यंत्रों का राजा है। मस्तिष्क रूपी यंत्र ने सभी यंत्रों के निर्माण में प्रमुख भूमिका और दायित्व का निर्वाहन किया है। हम किसी और यंत्र का उपयोग करें या न करें, लेकिन मस्तिष्क के उपयोग के बिना तो बिलकुल जीवन संभव नहीं है। चूंकि हम अधिकांष समय इसी यंत्र का उपयोग करते रहते हैं तो यह स्वाभाविक ही है कि यह पूरी तरह हमें सम्मोहित करके हमारा मालिक बन जाता है। आज के समय में कोई ऐसा मनुष्य ढूढंना बहुत ही दुर्लभ है जो यंत्रों की गुलामी की जंजीरों में न जकड़ा हो।
      यंत्रों की गुलामी और इसकी दासता हमें पूर्ण रूप से अपंग बना रही है। अगर हमने अभी नहीं चेता तो हमारी आने वाली पीढ़ी पूरी तरह से यांत्रिकी पर ही निर्भर हो जाएगी। उसके लिए तो अपने-आपको समझना मुष्किल हो जाएगा, न ही वह अपनी मर्जी से खा सकेंगे न ही पी सकेंगे। हमें अपनी इस यंत्र निर्भरता को त्यागना ही होगा। हमने यंत्रों का निर्माण अपनी सुविधा के अनुसार किया है, यंत्रों को हम मानवों पर निर्भर होना चाहिए न कि हम मानव यंत्रों पर निर्भर हो जाएं।
       हमारी प्रगति ने यंत्रों की कुषलता बढ़ा दी है, लेकिन हमने यांत्रिकता से ऊपर उठने का कोई कदम नहीं उठाया, और न ही उठा पाने में सक्षम हैं, क्योंकि इन यंत्रों की सुविधाओं के दौर में हम, ‘‘अपने को, अपने विवेक को, अपने विचारों को भूल चुके हैं।’’ यही भूल अत्याधिक विनाषकारी है जो हमें विनाष की तरफ ढकेलती जा रही है।
       अब यह निर्णय हमें लेना है कि हम यंत्रों की गुलामी और इसकी दासता से मुक्त होना चाहते हैं या फिर अपनी ही आंखों से अपनी अपंगता अपनी विवषता के नजारे देखते हुए विनाष की तरफ अग्रसर होना चाहते हैं!

Thanks and Regards
Atul Kumar
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Sunday, September 22, 2013

वीरान थी दुनिया मेरी तेरे बगैर

एक दोस्त सचिन कचेहरवी  की सोच अपनी प्यारी पत्नी के लिए :
 हुश्न को ग़ज़लों में बयाँ कर दिया,
दिल के जज्बातों को अयाँ कर दिया.
वीरान थी दुनिया मेरी तेरे बगैर,
तुने आकर गुलिस्ताँ कर दिया.
याद माज़ी है तुम्हारा शुक्रिया,
जीना मेरा तुने आसाँ कर दिया.
मै था अदना एक मुसाफिर राह का,
सबने मिलकर कारवां कर दिया.
जुबां खामोश थी शब् था निशां,
अश्कों ने सब बयाँ कर दिया. 

Wednesday, June 12, 2013

भ्रष्टाचार की लौ, नौनिहालों का भविष्य ढ़केल रही है अँधेरे की गर्त में.



भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अधिकारियों की उदासीनता जनपद में शिक्षा व्यवसायियो के हौसलें बुलंद कर रही है। प्रशासनिक अधिकारियों की उदासीनता के कारण जनपद में उच्चस्तरीय शिक्षा के माध्यम से बच्चों के भविष्य के साथ खुल्ला खेल फरुक्खाबादी खेला जा रहा है। ऐसे में विद्यालय संचालकों के हौसले इतने बुलंद हैं की प्रशासन और शासनादेश का कोई मतलब और खौफ नहीं है।
बाराबंकी  जनपद में डॉ राम मनोहर लोहिया अवध विश्व विद्यालय की संबद्धता से संचालित गुलाब देई प्रोफेसनल स्टडीज बुधेडा में महाविद्यालय प्रशासन द्वारा स्नातक की परीक्षाओं में अनुसूचित जाति के बच्चों को बी० ए० प्रथम वर्ष के परीक्षार्थियों को प्रवेश पत्र नहीं दिया गया। कारण इनकी फीस शासन से महाविद्यालय को मिलनी थी उसके बाद भी बच्चों से रुपये ३ हज़ार शुल्क के और २ सौ प्रवेश पत्र के लिए जाने थे। शासनादेश के बावजूद अनुसूचित जाति के बच्चों से  फीस वसूली गयी और जिनके पास  पैसे नहीं थे या उनकी आर्थिक स्थिति नहीं थी फीस दे पाने की उन्हें परीक्षा नहीं देने दिया गया।
भ्रष्टाचार की कुछ ऐसी ही कहानी जहांगीराबाद एजुकेशनल ट्रस्ट द्वारा संचालित जहांगीराबाद मीडिया संस्थान की है जो जिले में पिछले  वर्षों से संचालित होकर बच्चों से फीस के रूप में एक से ढेड लाख रुपये वसूल रहा है और जिला प्रशासन की उदासीनता के चलते बिना की विवि की संबद्धता के फल&फूल रहा है। जहांगीराबाद मीडिया संस्थान द्वारा जारी प्रमाण&पत्र छात्रों को बहकाने और बरगलाने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर रहा है] क्यूँकि जहांगीराबाद मीडिया संस्थान की किसी सरकारी@a अर्द्धसरकारी कार्यों में कोई मान्यता नहीं है। जिसकी सूचना] जन सूचना अधिकार के तहत मांग कर जिला प्रशासन को दी गयी है] लेकिन शिक्षा व्यवसायियों के बढ़ते कद के आगे जिला प्रशासन मूक दर्शक बना हुआ है।
विद्यार्थीयों के भविष्य के साथ] शिक्षा माफिया और जिला प्रशासन खेल रहे हैं आँख मिचौली का घिनौना खेल। ऐसे में अधिकारियों की भ्रष्टाचार के प्रति निष्ठा इन विद्यार्थियों के भविष्य को अँधेरे की गर्त में ले जाने के प्रति कटिबद्ध सी प्रतीत हो रही है। 
सभार
स्वतंत्र चेतना  एवं चेतना विचार धारा हिंदी दैनिक

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Friday, February 22, 2013

अमरत्व के लिए चाहिए बुलंद हौसले और सशक्त उद्देश्य

           भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आधुनिक दुनिया के सबसे बड़े जन आन्दोलनों में से एक था। जिसने भारत के निर्माण में सबसे अहम् भूमिका निभाई। आन्दोलानोपरांत उपनिवेशवादी सामराज्य का पतन हुआ। विभिन्न धर्मों, वर्गों और विचारधाराओं के लोग एक जुट हुए, लेकिन एकजुटता का यह विचार किसी एक भाषा, धर्म या संस्कृति पर आधारित न होकर विविधता और मिश्रित संस्कृति पर आधारित थ. इसी विविधता में जो एक नाम मुझे सर्वोपरि नजर आता है वह है शहीद-ए -आज़म सरदार  सिंह का। तेईस (२३) वर्ष छह (६) माह और सोलह (१६) की जिंदगी में इन्होंने उपनिवेशवादियों को यह बता दिया कि अमर होने के लिए लम्बी जिंदगी नहीं बल्कि बुलंद हौसले और सशक्त उद्देश्य की दरकार होनी चहिये।
          उपनिवेशवादियों की नींद उचाटने वाले सरदार भगत सिंह के ८२वें शहीद दिवस पर सज़ा से पहले न्यायालय में न्यायाधीश से अपने और अपने साथियों के लिए की गयी बहस में कैसे उन्होंने यह प्रमाणित किया कि अमरत्व के लिए चाहिए बुलंद हौसले और सशक्त उद्देश्य न की उद्देश्य विहीन जिंदगी।
          "माई लार्ड हम न वकील हैं, न अंग्रेजी विशेषज्ञ और न हमारे पास डिग्रियां हैं। इसलिए हमसे शानदार भाषणों की आशा न की जाये। हमारी विनती है कि हमारे बयान की भाषा सम्बन्धी त्रुटियों पर ध्यान न देते हुए, उसके वास्तविक अर्थ को समझने का प्रयत्न किया जाये। दुसरे तमाम मुद्दों को हम अपने वकील पर छोड़ते हुए मै स्वयं इस मुद्दे पर अपने विचार प्रकट करूँगा। यह मुद्दा इस मुकद्दमे में बहुत महत्वपूर्ण है। मुद्दा यह है कि हमारी नीयत क्या थी और हम किस हद तक अपराधी हैं।
          विचारणीय यह है कि असेम्बली में हमने जो दो बम फेंके, उनसे किसी व्यक्ति को शारीरिक या आर्थिक हानि नहीं हुई। इस दृष्टिकोण से हमे सज़ा दी गयी है, वह कठोरतम ही नहीं, बदला लेने की भावना से दी गयी है। यदि दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाये तो जब तक अभियुक्त की मनोभावना का पता न लगाया जाये उसके असली उद्देश्य का पता नहीं चल सकता। यदि उद्देश्य को पूरी तरह से भुला दिया जाये तो किसी के साथ न्याय नहीं हो सकता, क्योंकि उद्देश्य को नजरों में न रखने पर संसार के बड़े-बड़े सेनापति भी हत्यारे नज़र आयेंगे। सरकारी कर वसूल करने वाले अधिकारी चोर, जालसाज दिखाई देंगे और न्यायाधीशों पर भी क़त्ल करने का अभियोग लगेगा। इस तरह सामाजिक व्यवस्था और सभ्यता खून-खराबा, चोरी और जालसाजी बनकर रह जाएगी। यदि उद्देश्य की उपेक्षा की जाये तो हर धर्म प्रचारक झूठ का प्रचारक दिखाई देगा, और हर पैगम्बर पर अभियोग लगेगा की उसने करोड़ों भोले और अनजान लोगों को गुमराह किया। यदि उद्देश्य को भुला दिया जाये, तो हज़रत ईसा मसीह गड़बड़ी फ़ैलाने वाले, शांति भंग करने वाले और विद्रोह का प्रचार करने वाले दिखाई देंगे और कानून के शब्दों में वह खतरनाक व्यक्ति माने जायेंगे. अगर ऐसा हो, तो मानना पड़ेगा की इंसानियत की कुर्बानियां, शहीदों के प्रयत्न, सब बेकार रहे और आज भी हम उसी स्थान पर खड़े हैं, जहाँ पर आज से बीसियों शताब्दी पहले थे। क़ानून की दृष्टि से उद्देश्य का प्रश्न खासा महत्त्व रखता है।
          माई लार्ड इस दशा में मुझे यह कहने की आज्ञा दी जाये कि जो हुकुमत इन कमीनी हरकतों में आश्रय खोजती है, जो हुकूमत व्यक्ति के कुदरती अधिकार छीनती है, उसे जिवीत रहने का कोई अधिकार नहीं है। अगर यह कायम है, तो आरजी तौर पर और हजारों बेगुनाहों का खून इसकी गर्दन पर है। यदि कानून उद्देश्य नहीं देखता तो न्याय नहीं हो सकता और न ही स्थाई शांति स्थापित हो सकती है। आटे में संखिया मिलाना जुर्म नहीं, यदि उसका उद्देश्य चूहे मारना हो, लेकिन यदि इससे किसी आदमी को मार दिया जाये, तो क़त्ल का अपराध बन जाता है। लिहाज़ा ऐसे कानूनों को, जो युक्ति पर आधारित नहीं और न्याय सिद्धांत के विरुद्ध हैं, उन्हें समाप्त कर देना चाहिए। ऐसे ही न्याय विरोधी कानूनों के कारण बड़े-बड़े श्रेष्ठ बौद्धिक लोगों ने बगावत के कार्य किये हैं।
          हमारे मुकद्दमे के तथ्य बिलकुल सादे हैं। ८ अप्रैल १९२९ को हमने असेम्बली में दो बम फेंके। उनके धमाके से चंद लोगों को मामूली खरोंचे आई। चेंबर में हंगामा हुआ, सैकड़ों दर्शक और सदस्य बाहर निकल गए, कुछ देर बाद ख़ामोशी के साथ दर्शक गैलरी में बैठे रहे और हमने स्वयं अपने को प्रस्तुत किया की हमें गिरफ्तार कर लिया जाये। हमें गिरफ्तार कर लिया गया। अभियोग लगाये गये और हत्या करने के प्रयत्न में हमे सज़ा दी गयी। लेकिन बमों से ४-५ आदमियों को मामूली नुकसान पहुंचा. जिन्होंने यह अपराध किया, उन्होंने बिना किसी किस्म के हस्तक्षेप के अपने आपको गिरफ़्तारी के लिए पेश कर दिया। सेशन जज ने स्वीकार किया है कि यदि हम भागना चाहते, तो भागने में सफल हो सकते थे। हमने अपना अपराध स्वीकार किया और अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए बयान दिया। हमे सज़ा का भय नही है। लेकिन हम यह नहीं चाहते की हमे गलत समझा जाये। हमारे बयान से कुछ पैराग्राफ काट दिए गए हैं, यह वास्तविकता की दृष्टि से हानिकारक है।
          समग्र रूप से हमारे व्यक्तव्य के अपराध से साफ होता है की हमारे दृष्टिकोण से हमारा देश एक नाज़ुक दौर से गुजर रहा है। इस दशा में काफी उंची आवाज़ में चेतावनी देने की जरुरत थी और हमने अपने विचारानुसार चेतावनी दी है। संभव है कि हम गलती कर रहे हों, हमारा सोचने का ढंग जज महोदय के सोचने के ढंग से भिन्न हो, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हमे अपने विचार प्रकट करने की स्वीकृति न दी जाये और गलत बातें हमारे साथ जोड़ी जायें।
          'इंकलाब जिंदाबाद और सामराज्य मुर्दाबाद ' के सम्बन्ध में हमने जो व्याख्या अपने बयान में दी, उसे उडा दिया गया है हलाकि यह हमारे उद्देश्य का खास भाग है। इंकलाब जिंदाबाद से हमारा वह उद्देश्य नहीं था जो आम-तौर पर गलत अर्थ में समझा जाता है। पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज थी, जिसे हम प्रकट करना चाहते थे। हमारे इंकलाब का अर्थ पूँजीवादी युद्धों की मुसीबतों का अंत करना है। मुख्य उद्देश्य और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया समझे बिना किसी के सम्बन्ध में निर्णय देना उचित नहीं है। गलत बातें हमारे साथ जोड़ना अन्याय है।
          इसकी चेतावनी देना बहुत आवश्यक था। बेचैनी रोज़-रोज़ बढ रही है। यदि उचित इलाज न किया गया, तो रोग खतरनाक रूप ले लेगा। कोई भी मानवीय शक्ति इसकी रोकथाम न कर सकेगी। अब हमने इस तूफ़ान का रुख बदलने के लिए यह कार्यवाही की। हम इतिहास के गंभीर अध्येता हैं। हमारा विश्वास है की यदि सत्ताधारी शक्तियां ठीक समय पर सही कार्यवाही करतीं, तो  फ़्रांस और रूस की खूनी क्रांतियाँ न बरस पड़ती। दुनिया की कई बड़ी-बड़ी हुकूमतें विचारों के तूफानों को रोकते हुए खून-खराबे के वातावरण में डूब गयी। सत्ताधारी लोग परिस्थितियों के प्रवाह को बदल सकते हैं। हम पहले चेतावनी देना चाहते थे। यदि हम कुछ व्यक्तियों की हत्या करने के इच्छुक होते, तो हम अपने मुख्य उद्देश्य में विफल हो जाते।
          माई लार्ड, इस नीयत और उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए हमने कार्यवाही की और इस कार्यवाही के परिणाम हमारे बयान का समर्थन करते हैं। एक और नुक्ता स्पष्ट करना आवश्यक है। यदि हमे बमों की ताकत के सम्बन्ध में कत्तई ज्ञान न होता, तो हम पण्डित मोती लाल नेहरू, श्री केलकर, श्री जेकर और श्री जिन्ना जैसे सम्माननीय राष्ट्रिय व्यक्तियों की उपस्थिति में क्यों बम फेंकते? हम नेताओं के जीवन को किस तरह खतरे में डाल सकते थे? हम पागल तो नहीं हैं? और अगर पागल होते, तो जेल में बंद करने के बजाय हमें पागल खाने में बंद किया जाता। बमों के सम्बन्ध में हमें निश्चित रूप से पूर्ण जानकारी थी। उसी कारण हमने ऐसा साहस किया। जिन बेंचों पर लोग बैठे थे, उन पर बम फेंकना कहीं आसन काम था, खाली जगह पर बमों को फेंकना निहायत मुश्किल था। अगर बम फेंकने वाले सही दिमागों के न होते या वे परेशान होते, तो बम खाली जगहों के बजाय बेंचों पर गिरते। तो मैं कहूँगा कि खाली जगह के चुनाव के लिए जो हिम्मत हमने दिखाई, उसके लिए हमें इनाम मिलना चाहिए। इन हालत में माई लार्ड हम सोचते हैं की हमे ठीक तरह समझा नहीं गया। आपकी सेवा में हम सजाओं में कमी कराने नहीं आये, बल्कि अपनी स्थिति स्पष्ट करने आये हैं। हम चाहते हैं की न तो हमसे अनुचित व्यवहार किया जाये, न ही हमारे सम्बन्ध में अनुचित राय दी जाये,. और रही बात हमारे लिए सज़ा की, तो हम तो मार्गदर्शक का काम करने आये थे हमारे लिए सज़ा या मौत कोई मायने नहीं रखती।"
          इन अमर शब्दों में हताशा का बोध कहीं महसूस भी नहीं होता, सिवाय बुलंद हौसलों के। यदि वह महान क्रन्तिकारी चाहता तो मौत की माफ़ी की बात करता लेकिन नहीं। भगत सिंह संभावनाओं के जननायक थे। वे हमारे अधिकारिक, औपचारिक नेता तो नहीं बन पाए शायद यही वह वजह है की सब चाहे वह अंग्रेज हुक्मरान रहें हो या फिर भारतीय दोनों उनसे खौफ खाते प्रतीत होते है. आज जरूरत है उनके विचारों को क्रियान्वित करने की, लेकिन उनके विचारों को क्रियान्वित करने में सरकारी कानूनों की घिगघी है बंध जाती है। भगत सिंह ने इतने अनछुए सवालों को स्पर्श किया है की उन पर वृहद् शोध की जरूरत है साथ ही साथ उनके विचारों पर हम कैसे चले इसके लिए बौधिक और जन आन्दोलनों की जरूरत है। जिससे उनकी अमरता और बलिदान का अमरत्व हम सभी को मार्गदर्शित करता रहे।

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Atul Kumar
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