Thursday, March 10, 2011

Dharm Granthon ki Padhai Par Rok kyun?

                    आप पानी का बर्तन कब भरते है? जब वह खाली होता है.... भरे बर्तन में कोई भी व्यक्ति पानी नहीं भर पाता. साधना के उन्नत संस्कार भी खाली पड़े बर्तन में ही भरे जा सकते हैं. कोमल बाल्यावस्था में, आरंभिक शिक्षा के साथ ही परिपक्व मानसिकता हेतु, साधना को शिक्षा के क्रम में लेने से पुष्ट चरित्र के नागरिकों की कल्पना को साकार किया जा सकता है.
                   दुर्भाग्य से आरंभिक शिक्षा में, इस देश के बहुसंख्यकों को अथवा यूँ कहें कि मूल निवासियों को, पाठ्यक्रम में किसी भी प्रकार के धर्म ग्रंथ पढ़ाने की सख्त मनाही है. जबकि अल्पसंख्यक सम्प्रदायों को अपने स्कूलों में "बाइबिल" और "कुरान" आदि पढ़ाने का स्वतः अधिकार प्राप्त है. एक उच्च परिपक्व मानसिकता, विश्वव्यापी मानसिक स्तर, जो धार्मिक संकीर्णताओं से रहित है, उसे भी पढाने का हमे अधिकार, आरम्भिक कक्षाओं में नहीं है.
                  इसी के कारण राष्ट्र के नागरिक के चरित्र का अत्यधिक अवमूल्यन हो रहा है. परिपक्व मानसिकता के साथ ही प्रजातंत्र की कल्पना सार्थक हो सकती है. अपरिपक्व मानसिकता वाला व्यक्ति कभी भी मानवीय मूल्यों को तिलांजली देकर, पशुवत अथवा पिशाच की भांति आचरण कर सकता है. ऐसे व्यक्तियों के समूहों के साथ प्रजातंत्र अर्थहीन हो जाता है......

Sunday, March 06, 2011

कथाएं एवं ग्रन्थ

                     दासता के लम्बे अंतरालों में लुप्त हो भारत-भारती, एक अँधेरे युग से लम्बे काल तक गुजरती रही है. उस समय जिन विदेशी धर्मों का प्रभाव आया, उनमें धर्म का स्वरुप इतिहास तक ही सीमित था. ईसाईयत, ईसा के ऐतिहासिक काल से ही आरम्भ होती थी , इस्लाम भी एक ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि से उभरता हुआ धर्म था. ऐतिहासिकता को ही धर्म धरम मानने की मानसिकताओं ने यहाँ पर भी; अतीत के संत, ऋषि तथा सूक्ष्म दृष्टा, मनोवैज्ञानिक एवं वैज्ञानिक उप्लब्धियों को केवल ऐतिहासिकता की दूरबीन से ही देखना आरम्भ कर दिया. इसी कारण भ्रमों का विस्तार होता चला गया. जो आज भी यथावत है. भारत को आदि संस्कृति ने धर्म ग्रन्थ के रूप में किसी पुस्तक को अकेले सम्मानित नहीं किया है. भारतीय संस्कृति तथा धर्म ने अतीत युग में, प्रकृति को ही धर्म का मूल ग्रन्थ माना है. एक ऐसा ग्रन्थ जिसे परमेश्वर ने स्वयं आत्मा के रूप में प्रगट होकर लिख रहा है. प्रकृति ही मूल ग्रन्थ है, तथा हम सब इस ग्रन्थ के अक्षर हैं. चारों वेद, ब्रह्मण, आरण्यक ग्रन्थ न्याय शास्त्र तथा पुराण आदि अध्यात्म  रुपी  विश्व विद्यालय  की  पाठ्य पुस्तकें  हैं. उपनिषद इन्ही पाठ्य पुस्तकों की संक्षिप्त टिप्पणियां हैं. सभी प्रकार के लीला  ग्रन्थ,  वेद  रुपी पुस्तकों का सरल एवं सरस, उदाहरणों सहित एवं  उद्वरणों  से युक्त,  स्पष्टीकरण हैं.  इस  प्रकार  लीला ग्रन्थ से लेकर वेद तक, धर्म का मूल पाठ नहीं है वरण धर्म का मूल पाठ जो प्रकृति है, उसको स्पष्ट करने वाला विश्वविद्यालय है. इसीलिए संस्थागत शिक्षा से पूर्व  सामाजिक, सामूहिक एवं परिपक्व शिक्षा को अतीत के युग में शिक्षा का ही उपक्रम माना गया.
                    बालक जिस अमृतमय ज्ञान को संस्थागत शिक्षा में पाने हेतु गुरुकुल में प्रवेश करेगा, उसी शिक्षा का सरल एवं सरस, स्पष्टीकरणों से युक्त ज्ञान को, वह राम और कृष्ण की लीलाओं में भागवत की कथाओं में तथा पौराणिक कथाओं में ग्रहण करता हुआ, संस्थागत शिक्षा की परिपक्व मानसिकता को शिक्षा से पूर्व ही प्राप्त कर लेता था. आधुनिक युग में बुढ़ापे तक उसे अस्मिता का परिचय नहीं होता है. अतीत की शिक्षा कथाओं और लीलाओं के माध्यम से अस्मिता का निःसंदेह परिचय प्रदान करके ही, समाज उसे संस्थागत शिक्षा की ओर भेजता था. अतीत के युग में संस्थागत शिक्षा में भी इन्ही कथाओं और मनोविज्ञान को सरल एवं सरस रूप में ग्रहण करता था.
                  इस प्रकार सभी कथाएं एवं ग्रन्थ प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का प्रत्येक क्षण बनाते रहे हैं.........