Friday, June 08, 2012

पर्यावरण की दशा और दिशा


परि-आवरण। परि अर्थात् चारों ओर, आवरण अर्थात् ढका हुआ या रुका हुआ।
आज पर्यावरण की दशा और दिशा को समझने के लिए प्रकृति को समझना बहुत जरुरी हो गया है. पर्यावरण और प्रकृति दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु हैं, लेकिन आज के दौर में लोगों ने इसे अलग-अलग नजरिये से देखना शुरू कर दिया है. जो कि बहुत ही भ्रमात्मक और भयावह है.
आज हर व्यक्ति पर्यावरण की बात करता है, प्रदूषण से बचाव के उपाय सोचता है। व्यक्ति स्वच्छ और प्रदूषण-मुक्त पर्यावरण में रहने के अधिकारों के प्रति सजग होने लगा है और अपने दायित्वों को समझने लगा है। वर्तमान में विश्व ग्लोबल वार्मिंग के सवालों से जूझ रहा है। इस सवाल का जवाब जानने के लिए विश्व के अनेक देशों में वैज्ञानिकों द्वारा प्रयोग और खोजें हुई हैं। उनके अनुसार अगर प्रदूषण फैलने की रफ्तार इसी तरह बढ़ती रही तो अगले दो दशकों में धरती की औसत तापमान 0.5 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक के दर से बढ़ेगा। यह चिंताजनक है।
तापमान की इस वृद्धि में विश्व के सारे जीव-जंतु बेहाल हो जाएँगे और उनका जीवन खतरे में पड़ जाएगा। पेड़-पौधों में भी इसी तरह का बदलाव आएगा। सागर के आस-पास रहने वाली आबादी पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ेगा। जल स्तर ऊपर उठने के कारण सागर तट पर बसे ज्यादातर शहर इन्हीं सागरों में समा जाएंगे। हाल ही में कुछ वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि जलवायु में बिगाड़ का सिलसिला इसी तरह जारी रहा तो कुपोषण और विषाणुजनित रोगों से होने वाली मौतों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हो सकती है। जलवायु परिवर्तन से हर साल पचास लाख लोग बीमार पड़ रहे हैं।
 इस पारिस्थितिक संकट से निपटने के लिए मानव को सचेत रहने की जरूरत है। दुनिया भर की राजनीतिक शक्तियां इस बहस में उलझी हैं कि गरमाती धरती के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए। अधिकतर राष्ट्र यह मानते हैं कि उनकी वजह से ग्लोबल वार्मिग नहीं हो रही है। लेकिन सच यह है कि इसके लिए कोई भी जिम्मेदार हो भुगतना सबको है।
 यह बहस जारी रहेगी लेकिन ऐसी कई छोटी पहल है जिसे अगर हम शुरू करें तो धरती को बचाने में बूंद भर योगदान कर सकते हैं। हम अगर अपने बचपन में वापस लौट कर देखें तो हम पाते हैं कि ये सारी चीजें जिस रूप में और जितनी मात्रा में पहले पाई जाती थीं, वैसे अब नहीं मिलती। पुराने जमाने में अपने देश में ढेर सारे जंगल थे। जंगलों में ऋषि-मुनियों के आश्रम हुआ करते थे। इन आश्रमों के आस-पास शिकार खेलना मना था। अनेक प्रकार के पशु-पक्षी और मृग निर्भय होकर घूमा करते थे। गांवों और कस्बों के मनोरम बागों में चिड़ियाँ चहचहाया करती थीं, बुलबुल और कोयलें गाया करती थीं। पेड़ के नीचे कि शीतल छाया और गर्मी में भी ठण्ड का एहसास जो आज सिर्फ कल्पनाओं, फिल्मों और ए. सी. कमरों में सिमट के रह गया है कोयल की कूक सुनने को मन तरस जाता है, मोर का नाच देखे बिना ही बरसात बीत जाती है। बाघ, चीता, हिरन, खरगोश आदि जंगलों के बजाय चिड़ियाघरों की शोभा बढ़ाने लगे हैं। हम ‘सुरसा’ राक्षसी के मुह की तरह बढ़ती अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जंगल काट डाले हैं, वन्य-जीवों का आवास उजाड़ दिया है। सब कुछ बदल चुका है क्या हमने कभी सोचा है की इतना बदलाव क्यूँ और कैसे हो गया? या ऐसे परिवर्तन जो हमे पल-प्रतिपल विनाश और मृत्यु की तरफ ले जा रहें हैं कब तक होते रहेंगे…?
जिस गति से विश्व का तापमान बढ रहा है उस आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि अब पृथ्वी की  आयु ज्यादा नहीं रही.. अगर हम अब भी नहीं चेते तो सम्पूर्ण मानव सभ्यता नष्ट हो जाएगी बढ़ते उच्च ताप और पिघलते ग्लेशियर से सारी पृथ्वी जल-मग्न हो जाएगी तब दुनिया के निर्माण के लिए कोई श्रद्धा-मनु नहीं होंगे… न ही आदम और हौव्वा आयेंगे इस पृथ्वी को बचने... अगर हम अपने आपको और अपने वातावरण को बचाना चाहते हैं तो अब समय आ गया है बदलाव का… हमे बदलाव लाना है वृक्षों की कटाई पर रोक लगाकर नये वृक्षों को रोपने की और उन्हें पोषित करने के लिए... बदलाव हमे लाना होगा भौतिकवादी युग से निकलने के लिए और प्रकृति के संरक्षण और उस पर निर्भरता के लिए… 
आज का युग पर्यावरणीय चेतना का युग है। हर व्यक्ति अपने पर्यावरण के प्रति चिन्तित है। ज्ञान और विज्ञान की हर शाखा के विद्वान, चिन्तक पर्यावरण की सुरक्षा और संचालन के प्रति जागरुक हैं। आज हर व्यक्ति स्वच्छ और प्रदूषण-मुक्त पर्यावरण में रहने के अपने अधिकारों के प्रति सजग होने लगा है और अपने दायित्वों को समझने लगा है। यही कारण है कि आज ज्ञान-विज्ञान की ऐसी कोई भी विषय-शाखा नहीं है, जिसमें पर्यावरण संबंधी समस्याओं की चर्चा न हो।
 वे सारी स्थितियाँ, परिस्थितियाँ का प्रभाव जो किसी भी प्राणी या प्राणियों के विकास पर चारों ओर से प्रभाव डालते हैं, वह उसका पर्यावरण है। वास्तव में पर्यावरण में वह सब कुछ सम्मिलित है, जिसे हम अपने चारों ओर देखते हैं,  जल, स्थल, वाय़ु, मनुष्य, पशु (जलचर, थलचर, नभचर), वृक्ष, पहा़ड़, घाटियाँ एवं भू-दृश्य आदि सभी पर्यावरण के भाग हैं। अगर पर्यावरण के एकीकृत रूप को देखा जाए तो हम देख सकते हैं कि प्रत्येक पर्यावरण घटक में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से ऊर्जा का उपयोग निश्चित है। तालिका में पर्यावरण के विभिन्न घटकों को दर्शाया गया है।
 जरा सोचिये, हमारे चारों ओर किस चीज़ का आवरण है ? वे कौन-कौन सी चीज़ें हैं, जिनसे हम घिरे हैं ? हमारे चारों ओर हवा है, पेड़-पौधे हैं, पशु–पक्षी हैं, मिट्टी है, पानी है, और ऊपर चाँद-सितारें हैं। अतः ये सारी चीजें हमारे पर्यावरण के अंग हैं और इन्हीं से मिलकर बना है हमारा पर्यावरण। जब बड़े लोग पर्यावरण की बात करते हैं, उसके सुरक्षा और संतुलन के प्रति चिंता व्यक्त करते हैं, तो उनका तात्पर्य इन सारी चीजों से होता है।
 हमे ऐसा लगता है कि ये सारी चीजें तो हमारे आस-पास सदियों से पाई जाती हैं, और पाई जाती रहेंगी तो फिर हमे  चिंता किस बात की है ?
दरअसल, चिंता की बात यह है कि हमारी जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ अन्य जीवों, पशु-पक्षियों और पौधों के विलुप्त हो जाने की आशंका बढ़ती जा रही है। जैसे-जैसे हमारी जनसंख्या बढ़ रही है, उद्योग-धंधों का विकास हो रहा है, वैसे-वैसे हमारे पर्यावरण को खतरा बढ़ रहा है।
 कल-कारखानों से निकलने वाली विषैली गैसें हमारे वायुमण्डल को जहरीला बना रही हैं। इन कारखानों से निकलने वाले व्यर्थ पदार्थ हमारे नदी-नालों और मिट्टी को प्रदूषित कर रहे हैं। इस प्रकार हम मनुष्यों के ही स्वास्थ्य और जीवन के लिए खतरा होता जा रहा है। चिंता की बात यही है।
 पर्यावरण का विषय-क्षेत्र इन सारी चिंताओं को अपने-आप में समेटे हुए है। पर्यावरण संबंधी चिंताओं ने समूचे मानव समुदाय को झकझोर कर रखा दिया है। कहा जाता है कि मानव इस जीवन जगत् में सबसे बुद्धिमान प्राणी है। शायद यह कहना सच भी है, लेकिन पर्यावरण की समस्या ने मानव बुद्धि को चकरा दिया है।
सारी मानव जाति आज के ऐसे दोराहे पर खड़ी है जहाँ से सामने की दिशा में पूर्वत्तर आगे बढ़ते जाना अपने को मौत के मुंह में ढकेलने के बराबर है। लेकिन लौटकर पीछे जाना स्वयं ही जंगली आदम-सभ्यता को स्वीकार लेना होगा। समस्या सचमुच बड़ी जटिल है। पीछे लेना होगा। पीछे लौटकर न तो हम मानव सभ्यता के गौरवपूर्ण इतिहास को झुठलाना चाहेंगे और न ही आगे बढ़ते हुए अपनी सुंदर सभ्यता नष्ट करना पसंद करेंगे।
 ‘इधर मौत उधर खाई, के इस द्वंद्व को मिटाने का एक ही उपाय है। एक नये रास्ते का निर्माण, एक नई दिशा में प्रस्थान, इसी नई दिशा की खोज का प्रयास है पर्यावरण विज्ञान। लेकिन हम किसी भी दिशा में तो चल नहीं सकते। प्रकृति का संतुलन बड़ा नाजुक है।
 इस नाजुक संतुलन को बनाए रखते हुए ही हम अपनी नई दिशा तलाश सकते हैं। कभी भी अगर हम चूके तो पहाड़ी से फिसलते हुए व्यक्ति की तरह कहाँ जा गिरेंगे, कोई ठिकाना नहीं।


Atul Kumar
            E-Mail. atul.jmi1@hotmail.com
            Blog: http://suryanshsri.blogspot.com/