Saturday, April 30, 2011

1st May aur Majdoor Diwas

         अगर मजदूर खुश होगा तो उत्पादन बढ़िया होगा... देश और समाज उन्नति करेगा... पंक्ति तो शायद बहुत अच्छी है... पर हम अमल कितना कर पाते है? सवाल यह है..... श्रम को मानव की पूंजी की संज्ञा दी गयी है... और श्रम  होता भी है मजदूरों का गहना.... १ मई या यूँ कहूँ की अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस मजदूरों की इसी पूंजी या गहने को सुरक्षित रखने के लिए करता है संघर्ष...... १८८६ में मजदूर संगठनों ने एक प्रस्ताव पारित किया की १ मई १८८६ से प्रतिदिन ८ घंटे काम की अवधि निर्धारित की गयी..... इस अवधि तक लगभग २.५ लाख लोग इस संगठन में जुड़ चुके थे....१८८६ से १८८९ के मध्य कई देशों में श्रमिक आन्दोलनों की लहर फ़ैल गयी. इन सारी शर्तों को १८८९ में हुए मजदूर संघ के गठन के बाद यह पूर्ण रूपेण लागू भी कर दिया गया....
           गठन के १२२ वर्षों के बाद भी भारत में यह कानून व्यापारियों के सामने, पूंजी पतियों के सामने और हमारे देश के पोलिशी मेकरों के सामने औंधे मुह पड़ा है.... न तो प्राइवेट कंपनियों में मजदूरों की मासिक मजदूरी निर्धारित है और न ही काम के घंटों का उनके लिए कोई क़ानून.....  भारत चूँकि किसानों और मजदूर का देश है... लेकिन फिर भी हमारी सरकार ने अभी तक फसलों का न्यूनतम मूल्य लागू नहीं किया है.... अगर लागू भी है तो सिर्फ और सिर्फ बड़े व्यापारियों के लिए... क्या यह उचित है? कहने के लिए हम गांधी के पद चिन्हों पर चलने वाले हैं.... और गांधी के देश के रहने वाले हैं...  गांधी की खादी नीति और हथकरघा नीति आज पूरी तरह से बेजान हो चुकी है... बुनकारी का काम करने वाले बुनकर न तो भर पेट खाना खा पाते हैं... और न ही अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे पाते है... बुनकरी की कला बड़ी व्यापारियों के हाथों की कठपुतली बन कर रह गयी है....
             भारत का वजूद अगर कंही से  आत्म सम्मानित है, तो वो हैं सिर्फ हमारे किसान और मजदूर भाइयों की वजह से. और हमने या हमारी सरकार ने उनके लिए क्या किया है? क्या यही है मजदूर दिवस की कहानी? भारत में इंटक, एटक, सीटू, बीएमस और न जाने कितने संगठन कार्यरत हैं... पर इनकी दशा में क्या कोई परिवर्तन हुआ है? क्या मजदूरों और किसानों का दोहन ही है १ मई?