Saturday, February 12, 2011

shiksha v/s Education

             किसी भी राष्ट्र के लिए शिक्षा ही उसका भूत, वर्तमान और भविष्य होती है. नागरिक का चरित्र, राष्ट्र भक्ति, सुव्यवस्थित समाज तथा सुख एवं समृद्धि की मजबूत रीढ़ की हड्डी राष्ट्रीय शिक्षा ही होती है. आदि काल से आधुनिक समय तक शिक्षा ने अपने कई रूप बदले हैं. एक शिक्षा पद्धति  को  आदिकाल से सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टा, ऋषि, संत और मनीषी जन दे गए थे. एक शिक्षा जो लार्ड मैकाले ने गुलाम हिन्दुस्तान को दी थी, तथा एक शिक्षा जो हमारी सरकार ने हमे दी है. इसके साथ ही ६३ वर्षों से चली आ रही इस वर्तमान शिक्षा को मै स्पष्ट करना चाहूँगा.
            प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक राष्ट्र भाषा होती है. राष्ट्र भाषा से विहीन कोई भी राष्ट्र सम्मान नहीं पाता. गुलामी की जूठन को लादने वाला राष्ट्र कभी भी स्वतंत्र राष्ट्र नहीं माना जा सकता. वर्तमान शिक्षा हमारे राष्ट्र को राष्ट्रीय भाषा तक नहीं दे पाई है. पिछले ६३ वर्षों में राष्ट्र ने राष्ट्र भाषा के स्तर पर पराजय तो ली है और राष्ट्र भक्ति के स्तर पर भी हम बहुत बुरी तरह से पराजित हुए हैं. हमने चारित्रिक दृष्टि  से भी पिछले ६३ वर्षों में बहुत कुछ खोया है. सामाजिक दृष्टि से भी पिछले ६३ वर्ष में सामाजिक विघटन, विसंगतियों तथा बिखराव के होकर रह गए हैं. जिस देश के पास शिक्षा की दृष्टी नहीं है वह राष्ट्र अन्धे  ध्रतराष्ट्र की तरह है जो अपने ही वंश का तथा अपने ही राष्ट्र का समूल विनाश करवा बैठता है.
            आज की शिक्षा की जो व्यापक देन है वह है, "अच्छी नौकरी, बढ़िया तनख्वाह और मोटी घूस." मै यही प्रश्न पूछना चाहूँगा कि, "आप अपने बच्चे को क्यूँ पढ़ा रहे हैं?" इसलिए न! अच्छी नौकरी मिले, जहाँ तनख्वाह के साथ कुछ और भी व्यापक रूप से मिले, तो मेरा बेटा समाज में अच्छी प्रतिष्ठा, सुख और ऐश्वर्य पाए. क्या यह सच नहीं है? यदि यह सच है तो आज प्रतिष्ठा की कसौटी मोटी घूस ही तो है.
              सद्चरित्रता, सच्चाई और ईमानदारी मात्र हमारे चेहरे का मुखौटा बन कर रह गए हैं. मुखौटा भी ऐसा जो पूरी तरह से सड़ गया है. मुखौटा भी ऐसा जो जगह-जगह से उखड गया है, और उससे हमारा असली चेहरा बाहर झाँकने लगा है.
               मै आर्मी का मेजर हूँ, डाक्टर या इंजीनियर हूँ. इस देश का नेता, मंत्री या प्रधानमंत्री हूँ, जो कुछ हूँ मै हूँ, मै आपसे पूछना चाहता हूँ की आपने मुझे क्यूँ पढाया? प्राइमरी स्कूल के अध्यापक, विश्वविद्यालय के कुलपति से लेकर शिक्षा मंत्री तक मुझे क्यूँ पढ़ाते रहे? मेरे माता-पिता मुझे किस इच्छा से पढ़ाते रहे हैं? यदि पूरी ईमानदारी से हम इन प्रश्नों के उत्तर दें तो आधुनिक शिक्षा के उपरोक्त उद्देश्य हमारे सामने नंगे होकर नाचने लगेंगे. अतः कथित मुखौटे लगा कर हम स्वयं को ही तो अँधा बना रहे है?
                मै और मेरा स्वरुप आधुनिक शिक्षा में कहीं पर भी नहीं है. ऐसी शिक्षा जो मुझे मेरा स्वरुप भी न दिखा सके, मै स्वयं स्व अनभिज्ञ और अँधा रहूँ, ऐसी शिक्षा का क्या प्रयोजन? आज की शिक्षा हम सबको अपने प्रति अँधा ध्रतराष्ट्र ही तो बनती है. समाज में व्याप्त कुरीतियों की जड़ में वर्तमान की शिक्षा ही है. दहेज़ प्रथा में दोष है अथवा वर्तमान शिक्षा में प्रकट हुई हमारी भ्रमित मानसिकता के लिए दोषी है? प्रत्येक लड़की का पिता अपनी लड़की के लिए ऐसा पति चाहता है जिसकी तनख्वाह थोडा कम हो पर उपर की मोटी कमाई जरुर हो. अर्थात एक भ्रष्ट, राष्ट्रद्रोही तथा चरित्रहीन दामाद के दाम सबसे ऊपर हैं. दामादों की भीड़ में उसका सबसे अधिक महत्त्व है. लड़के का पिता भी चाहता है कि जब समाज बेईमान दामाद ही ढूंढ़ रहा है तो मेरी औलाद सबसे ज्यादा बेईमान हो तथा घूस के सबसे बड़े पद पर आसीन हो. आप ही बताइए जो रोज़मर्रा की जिंदगी में प्रत्येक व्यक्ति से घूस लेकर काम करता है, यदि वह अपने ससुर से दहेज़ नहीं लेगा, तो उसके अपने चरित्र पर धब्बा न लगेगा? हम प्रथा को गाली देते  हैं. मूल समस्या और वर्त्तमान शिक्षा प्रणाली के रूप में कुछ भी नहीं सोचना चाहते, आखिर क्यूँ?
                 आधुनिक शिक्षा कि उपलब्धियों का दूसरा उदाहरण हमारी भारतीय संसद है. भारत के संसद के सभी भारतीय सांसदों ने एक मत स्वीकारा है कि वे आंतरिक ईमानदारी, आत्मिक सच्चाई से शुन्य हैं. उनमें आधार भूत सच्चाई और इमानदारी की कमी है. इसलिए दल-बदलुआ कानून बनाया जाये. वर्तमान लोकसभा ने ही भारत के माथे पर कलंक का सबसे काला धब्बा, दल-बदलुआ कानून बना कर, भारत माता के माथे पर लगाया है, इस कानून की हमें क्या जरुरत थी? इसलिए न कि हमारे सारे सांसद कभी भी बेईमान और भष्ट हो सकते है? वे पैसे और पद के लिए टमाटर और आलू जैसी सब्जियों कि तरह बिक सकते हैं. उनमे चरित्र नाम कि कोई चीज नहीं है, इसलिए दल-बदलुआ कानून का पलस्तर उनकी टूटी हुई नैतिकता रूपी रीढ़ की हड्डी पर स्थाई रूप से चिपका दिया जाये? वे इतने भ्रष्ट क्यूँ हैं?
               आदि भारती युग में प्रचलित शिक्षा प्रणाली को समझने के लिए आदि भारत और भारती के स्वरुप को स्पष्ट कर लेना बहुत जरुरी है. हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि सैकड़ों साल की लम्बी गुलामी के अंतरालों में, स्मृति रूप में, गुलामी की भ्रमित छायाओं को ही, हमारे मस्तिष्क ने भर रखा है. गुलामी के अंतरालों के भ्रमित ज्ञान को ही हमने अतीत के ज्ञान के रूप में तथा पहचान के रूप में बटोर रखा है. हमें भारत-भारती के विशुद्ध रूप को जानने के लिए हमें गुलामी के अंतरालों को पार करके उस अतीत को टटोलना होगा जो विशुद्ध रूप से भारत-भारती का मौलिक स्वरुप था.
              आदि कालीन शिक्षा में शिक्षा की कल्पना सुदूर जंगल में वास करते ऋषि के साथ की गयी थी. ऋषि के ही आश्रम में गुरुकुल व्यवस्था रहती थी. जहाँ बालक शिक्षा पाने जाते थे. राजा से लेकर साधारण नागरिक तक के बालक समान भाव से गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करने हेतु जाते थे. शिक्षा का एक छत्र अधिकार वन में रहते हुए तपस्वी को दिया गया था. ऐसा क्यूँ?
                 शायद! शिक्षा कोमल मस्तिष्क पर निर्णायक प्रभाव डालती है, इसलिए शिक्षा का पूरा अधिकार ऐसे व्यक्ति को मिलना चाहिए जो किसी पक्ष से जुड़ा अथवा आसक्त न हो, किसी प्रकार की परिस्थितियों में लिप्त न हो तथा उसमें किसी प्रकार के पूर्वाग्रह न हों. ऐसे व्यक्ति की कल्पना में भारत-भारती ने आदि काल में, शिक्षा का सम्पूर्ण, व्यापक तथा स्वतंत्र अधिकार, वन में वास करते हुए सन्यासी को प्रदान किया था. भविष्य में भी शिक्षाविद एक निष्पक्ष न्यायाधीश ही रहे, ऐसा विचार करके व्यवस्थाओं ने सन्यासी को सभी प्रकार के सामाजिक कृत्यों अलग कर दिया था. सन्यासी को अधिकार था कि गुरुकुल में छात्रों को सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान, शिल्प, धनुर्विद्या, ज्योतिष, अध्यात्मिक, राजनीति तथा सभी प्रकार की नीति ज्ञान की शिक्षा प्रदान करे. सन्यासी को मात्र शिक्षित करने का अधिकार था परन्तु व्यावहारिक रूप से कर सकने की सामर्थ्य उन्हें प्रदान नहीं की गयी थी. जैसे वह ज्योतिष पढ़ा सकता था पर ज्योतिषी नहीं बन सकता था.
           वर्तमान शिक्षा में विश्वविद्यालय की शिक्षा में पाठ्यक्रम को सभी स्तरों पर सचिवालय के बाबू बनाते हैं ३-४ प्रकार के अर्थात सूक्ष्म पाठ्यक्रम को बनाकर वह अपने विभाग के बड़े बाबू को प्रेषित करते हैं. विभाग का बड़ा बाबू थोड़ी हेरा-फेरी करके बड़े आई० ए० एस० अफसर को भेज देता है. अफसर उनमें से किसी एक पर हस्ताक्षर की चिड़िया बिठा देता है. इसके उपरांत आठवां या दसवां फेल मंत्री अपने हस्ताक्षर जमा देता है, इस प्रकार आगामी वर्ष का पाठ्यक्रम नियत हो जाता है. इसी पाठ्यक्रम को विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर पीठ पर सामान लादे गधे की भांति वर्ष भर ढोते रहते हैं और छात्रों पर लाद देते हैं. अतीत और वर्तमान शिक्षा का बहुत बड़ा भेद है.
             आदिकालीन शिक्षा का उद्देश्य भौतिक भटकाव न होकर छात्र को ही केन्द्र बिन्दु माना गया था. पर आज.......................