Monday, April 11, 2011

पर्दा प्रथा और महिला सशक्तिकरण

             महिला और पर्दा दोनों का रिश्ता बहुत पुराना है. या यूँ कहूँ की दोनों एक दुसरे के पूरक हैं तो शायद समाज  या समाज के ठेकेदार बहुत खुश होंगे.... उनकी नजर में पर्दा आवरण है, मर्यादा है, शालीनता है...... लेकिन पर्दा करने वाली से क्या कभी उसकी राय जानी गयी? आज का समाज आयु, शिक्षा और जाति वर्ग में बँटा हुआ है. युवा और शिक्षित समाज इसे बेकार की चीज मानता है....... लेकिन बड़े और बुजुर्ग इसे जरुरी मानते हैं......अस्मिता की बाग-डोर को नाम दिया गया है "पर्दा".... लोग कहते हैं की समय आने पर होता है इसका एहसास.... भारतीय समाज में बेटी-बहु में अंतर को दर्शाता है पर्दा..... या यूँ कहूँ की घूँघट जो एक आवरण है, जो निर्धारित करती है मर्यादा को.....
              आज जब हम २२वीं सदी में और आजादी के ६३वें वर्ष में हैं, जब महिलाओं को पुरुषों के साथ, समाज के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चलने की अनुमति दी गयी है तो फिर उन्हें परदे से बहार क्यूँ नहीं निकलने दिया जा रहा है? क्यूँ आर्थिक कठिनाईयों से जूझते हुए सामाजिक कुरीतियों और विषमताओं को तोड़ना महिलाओं के लिए आज भी नामुमकिन है? महिलाओं में अदम्य क्षमता और मानसिक परिपक्वता के बावजूद इन्हें परदे में रहने के लिए विवश कर दिया जाता है.... यह कहाँ तक सही है? राजाराम मोहन राय से लेकर स्वामी दयानंद सरस्वती तक की कोशिश के कारण शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से लेकर सती प्रथा तक की समाप्ति तक खुली हवा में रहने और साँस लेने वाली नारी भले ही  बाल विवाह, सती प्रथा और देवदासी का जीवन जीने से बच गयी हो लेकिन घर और समाज की चाहरदीवारी को लाँघ कर अपने लिए सम्मानित जीवन जीने की कल्पना करने वाली नारी को जीवन भर तनाव और घुटन के साथ जीवन यापन करना होता है.......
                मल्टी नेशनल कंपनियों में बड़े पदों पर बैठी हुई महिलाएं हो या फिर खेत-खलिहानों में फसल काटने, बोझा ढोने वाले मजदूर या फिर जेठ की चिलचिलाती धुप में सड़क के किनारे गोद में मासूम बच्चे को बांधे हुए पत्थर तोडती हुई महिला ! जिन्हें सहानभूति और दया तो मिलती है लेकिन समाज आज भी उनके द्वारा लिए गए फैसले के प्रति करुण नहीं है...........
                 पर्दा प्रथा के लिए कुछ इतिहासकारों का कहना है की भारत में हिन्दुओं में पर्दा प्रथा इस्लाम की देन है और कुछ का मानना है की पर्दा प्रथा भारतीय समाज में बहुत पहले से है. पर्दा बड़ों के प्रति सम्मान को प्रदर्शित करने का एक जरिया है. कारण कोई भी हो परदे में तो रहना पड़ता है महिलाओं को ही. जिन्हें अपनी ख़ुशी को मार कर, हालातों से समझौता करके........ बंद रहना होता है परदे में.......
                हमने विकास तो बहुत कर लिया है लेकिन इस विकास का सच कुछ और ही है. विश्वस्तरीय सर्वेक्षण की माने तो ज्यादातर अमेरिकी चेहरा ढकने वाले पर्दा पर प्रतिबन्ध के खिलाफ हैं बावजूद इसके सिर्फ २८ प्रतिशत अमेरिकियों ने पर्दा प्रथा प्रतिबन्ध का समर्थन किया है.....फ़्रांस में ८२, जर्मनी में ७१, ब्रिटेन में ६२ और स्पेन में ५९% लोग ही पर्दा प्रथा प्रतिबन्ध पर समर्थन दे रहे हैं......
              क्या हमारा विवेक पर्दा प्रथा को इतना ज्यादा जरुरी करार देता है...... क्या यही है मानव समाज की विकासशीलता? क्या पर्दा प्रथा विकास के लिए इतनी ज्यादा जरुरी है? कहाँ तक हुए हम विकसित ये सवाल है समाज और समाज के ठेकेदारों के लिए????????

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