Friday, May 27, 2011

History of “Vande Maatram”


          "शब्दों एवं संगीत 'जन-गन-मन' के रूप में ज्ञात रचना भारत का राष्ट्र गीत है, जिसे सरकार उपस्थित अवसर के अनुसार शब्दों में परिवर्तन का अधिकार दे सकती है तथा 'वन्दे मातरम्' का जिसने स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक निभाई, 'जन-गन-मन' के समान मान्यता प्राप्त होगी." ये बोल भारत के संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी के हैं. भारतीय संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष का यह वक्तव्य, इस तथ्य को स्पष्ट करता है की यद्यपि भारतीय संविधान ने "जन-गण-मन" को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकारा, मगर "वन्दे मातरम्" की भी उपेक्षा नहीं की. वन्दे मातरम् को सामान आदर और महत्व प्रदान किया गया है.
          वन्दे मातरम् के रचयिता सुप्रसिद्ध बंगला उपन्यासकार श्री बंकिम चटर्जी जी थे. यह गीत उनके प्रसिद्ध उपन्यास "आनंद मठ" से लिया गया था, जिसे १९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और २०वीं शताब्दी के प्रारंभ में "राष्ट्रीयता की गीता" के नाम से पुकारा जाता था. अतः यह कहने में बिलकुल अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए की देश में राष्ट्रीयता के जागरण में "आनंद मठ" का उल्लेखनीय योगदान रहा. यह उपन्यास १८८० से १८८२ तक 'बंगदर्शन' नामक मासिक पत्रिका में धारावाहिक के रूप में छपी और इसके बाद पुस्तक के रूप में पाठकों के सामने आ गयी. उपन्यास के क्रांतिकारी स्वरुप से अंग्रेजी सरकार इतनी अधिक आतंकित हुई की आगे चल कर उसे इस उपन्यास पर प्रतिबन्ध लगाना पड़ा.
          अनुमान है कि 'वन्दे मातरम्' गीत की रचना, 'आनंदमठ' के प्रकाशन से बहुत पहले हो चुकी थी. वन्दे मातरम् के रचना काल के बारे में निश्चित रूप कुछ कह पाना बहुत कठिन है. मगर प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर 'वन्दे मातरम्' का रचना काल १८७२ से १८७५ के बीच माना जाता है.
          'वन्दे मातरम्' में जिस "माँ" की वंदना की गई है वह कोई साधारण माँ नहीं है. यद्यपि श्री बंकिम चन्द्र जी दुर्गा देवी के भक्त थे; मगर इस गीत में जिस माँ की वंदना है वह दुर्गादेवी भी नहीं है, वह तो मातृभूमि  है "जननी जन्मभूमि भारत माँ". लेखक ने इस सन्दर्भ में आपने एक पात्र भवानंद से 'आनंद मठ' में कहलाया भी है, "यह दुर्गादेवी का नहीं, देश का वर्णन है. हमारी एक माता है- मातृभूमि. हमारी एक ही माता सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम- देशमाता- महाजननी है."
          कहा जाता है कि 'वन्दे मातरम्' गीत के सृजन का श्रेय श्री बंकिम चन्द्र जी की सुपुत्री को है. श्री बंकिम चन्द्र जी अक्सर ही अपने परिजनों तथा मित्रों के सम्मुख मातृभूमि की प्रशंसा करते और उसके आगे अपना मस्तक झुकाते थे. ऐसे ही किसी अवसर पर उनकी सुपुत्री ने बालसुलभ जिज्ञासावस अपने पिता से पूछ लिया, "कैसी है वह मातृभूमि जिसकी आप इतनी प्रशंसा करते हैं? मुझे भी बतलाइये ना!" तभी संभवतः अपनी पुत्री की जिज्ञासा शांत करने के लिए ही लेखक महोदय ने इस गीत का सृजन किया. 'वन्दे मातरम्' की रचना कब हुई और कैसे हुई, इस विषय पर मतभेद हो सकता है; मगर यह तथ्य सर्वमान्य और सर्वस्वीकृत है की इस गीत ने आगे चल कर अत्यधिक लोकप्रियता अर्जित की है, और करता भी  रहेगा.
          १९०५ में बंगाल विभाजन के समय बंगाल की सरकार ने इस गीत पर प्रतिबन्ध लगा दिया था; मगर फिर भी इस गीत का गायन रुका नहीं. अनेक वीर नव युवक 'वन्दे मातरम्' गीत गाते हुए फांसी के तख्तों पर चढ़ गए. वन्दे मातरम् को कांग्रेस मंच से सर्वप्रथम १८९६ में प्रस्तुत किया गया. १९०६ में गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर जी ने स्वयं अपनी बनाई धुन पर कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में इसे प्रस्तुत किया. जिससे सभी श्रोता झूम उठे. उसके बाद तो इसे अनेक अवसरों पर गया गया, सदैव इस गीत को भूरी-भूरी प्रशंसा मिलती रही. १९३७ में कांग्रेस कार्यसमिति ने 'राष्ट्र गीत' पर विचार करने के लिए एक समिति नियुक्त की थी, जिसमें मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद, पंडित जवाहर लाल नेहरु, नेता जी  सुभाष चन्द्र बोस, आचार्य नरेन्द्र देव आदि सदस्य थे. इस समिति के सिफारिश के अनुसार कांग्रेस ने 'वन्दे मातरम्' को सभी राष्ट्रिय उत्सवों पर गाने के लिए स्वीकार किया. इस गीत में कुल  ४ पद हैं; मगर समय की दृष्टि से प्रथम २ पद ही गाने के लिए स्वीकार किये गए. इस गीत के प्रशंसकों में स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविन्द भी शामिल थे. मोहम्मद अली जिन्ना ने भी इस गीत को अनेक बार गया था... कांग्रेस मंच के साथ ही सेवा दल और प्रजामंडलों में भी यह गीत गया जाता रहा है. १९६१ में सम्पूर्णानन्द-शिक्षा समिति ने सुझाव दिया की विद्यार्थियों को राष्ट्रगीत 'वन्दे मातरम्' याद होना चाहिए.
          भारत सरकार से सन २००२ में हिंदी साहित्य में अतिविशिष्ट अनुसन्धान के लिए सीनियर फैलोशिप प्राप्त वरिष्ठ साहित्यकार मदनलाल वर्मा 'क्रान्त' ने इस गीत का हिंदी में, स्वाधीनता संग्राम के स्वदेशी आन्दोलन से लेकर साहित्य व आध्यात्मिक साधना के अद्भुत व्यक्तित्व महर्षि अरविन्द ने इस गीत का अंग्रेजी में और वर्तमान में राजनीति के ध्वजवाहक आरिफ मोहम्मद खान के इसका उर्दू में अनुवाद किया है.
          सन १८८२ में प्रकाशित इस गीत को सर्वप्रथम ७ सितम्बर १९०५ के कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्र गीत का दर्जा दिया गया था. इसलिए सन २००५ में इसके १०० वर्ष पूर्ण होने पर वर्ष भर समारोह का आयोजन किया गया. ७ सितम्बर २००६ को इस समारोह के समापन के अवसर पर मानव संसाधन मंत्रालय ने इस गीत को स्कूलों में गाये जाने पर विशेष बल दिया. कुछ आत्मघातियों द्वारा वन्दे मातरम् का विरोध करने पर तात्कालिक मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने संसद में बोला कि 'वन्दे मातरम्' गीत गाना किसी के लिए आवश्यक नहीं किया गया है, यह व्यक्ति कि स्वेच्छा पर निर्भर करता है कि वह इसे गाये या ना गाये...
          अपने इस गीत की लोकप्रियता के बारे में स्वयं बंकिम बाबू आश्वस्त थे. इसीलिये तो उन्होंने एक बार कहा था, 'वन्दे मातरम्' महान है, यह अमिट है. यह देश के हृदय पर राज करेगा. एक अन्य अवसर पर उन्होंने अपनी पुत्री से कहा था, "इस गीत से बंग भूमि पागल होकर नाचेगी और सम्पूर्ण भारत वर्ष इससे प्रेरणा लेगा." 'वन्दे मातरम्' ने अपने रचयिता के इस विश्वास को सत्य प्रमाणित किया.