Saturday, September 15, 2012

Hindi Diwas aur Humari bhasha ka wajood....


१४ सितम्बर हिंदी दिवस के रूप में भारत में मनाया जाता है... क्या हमने ये कभी सोचने कि जरुरत समझने कि कोशिश की दूसरे मुल्कों में, किसी दूसरी भाषा का भी दिवस मनाया जाता है...? जैसे कि इंग्लिश दिवस, उर्दू  दिवस, फारसी दिवस आदि. हम दूसरों के पीछे चलने वाले पिछलग्गू बनने से बाज़ नहीं सकते... कारण की ७०० वर्षों तक मुगलों/तुर्कों की गुलामी और फिर उसके बाद ३०० वर्षों तक अंग्रेजो की गुलामी, १९४७ में अंग्रेजों से आज़ादी मिलने के बाद परिस्थितियां वही ढाक के तीन पात... लेकिन जिस देश में बहुतायत में हिंदी भाषा का प्रयोग किया जाता है उसे देश की राजभाषा की संज्ञा दे दी गयी... यह कहाँ तक सही है...?
भारत किसी एक सभ्यता या संस्कृति का नहीं वरण कई सभ्यताओं, संस्कृतियों और धर्मानुयायियों का एक विशाल संग्रह का परिचायक है. ऐसे में भारत जैसे देश में किसी भाषा को राष्ट्र भाषा का दर्जा नहीं दिया जा सकता लेकिन एक विडम्बना है की हिंदी को राज भाषा का दर्जा दे दिया गया. लेकिन न तो क्षेत्रीय भाषाओँ के लिए कोई कानून बना बना और न ही लोगों की अभिव्यक्ति को जानने की की कोशिश की गयी. इन सारी बातों के बावजूद भी लोगों ने नारा बना डाला "हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्तान." शायद यही वजह है की हिंदी भाषा ने सम्पूर्ण भारत को एक माले की मोतियों को पिरो कर रखा है.
वैसे तो भाषा अभिव्यक्ति की एक पद्धति है जो की हर देश में, हर प्रान्त में, हर क्षेत्र में अलग-अलग होती है. समय परिवर्तन के साथ भाषा में भी परिवर्तन होता रहता है. भाषा मानवों की, पशुओं की, पक्षियों की भिन्न होती है. यहाँ हम बात कर रहें हैं भाषा की... भारत की राष्ट्र भाषा की... हिंदी की... हिंदी! इसके इतिहास के बारे में हम जाने की कोशिश करते हैं तो हम पाते हैं कि हिंदी भाषा संस्कृत और पॉली भाषा से उद्गम स्वरुप से मणि जाती है. भाषा! किसी देश कि उन्नति और प्रगति में उस देश के नागरिकों का जितना योगदान होता है उससे कहीं ज्यादा योगदान भाषा का होता है. किसी कवि ने सही कहा है कि: "निज भाषा उन्नति अहै, सब मन्त्रों कै मूल."
आज जब भारत विकास के पथ पर पल-प्रतिपल अग्रसर है तो भाषा कि भूमिका किसी से छिपी नहीं है. पहले यहाँ कि जानता ने रजा-महाराजाओं कि गुलामी झेली, तुर्कों ने इस देश पर राज किया, अंग्रेजों ने इस देश को अपनी सफलता कि सीढ़ी बनाकर इस्तेमाल किया. १२०० वर्षों तक दूसरी सस्कृति और परम्परा की गुलामी झेलने के बाद भी हमने अपनी भाषा को नहीं छोड़ा, हाँ ऐसे में हम अनेक भाषाओँ से परिचित जरूर हुए उनमें उर्दू, अरबी, फारसी और अंग्रेजी मुख्य है, फिर हमने इन भाषाओँ की जानकारी करनी शुरू कर दी और इस आपाधापी में हम भूल गए की हमारी भी अपनी कोई भाषा है, जिसके माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति जताते आयें हैं. हमने दूसरी अन्य भाषाओँ को जानने और समझने में जो दिलचस्पी दिखाई वह उनके नियमों, कानूनों को जानने और समझने के लिए नहीं थी; वह दिलचस्पी तो थी अपने जीवन स्तर में भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिए थी.
अंग्रेजों की गुलामी और उनके जुल्मों-सितम से बचने के लिए कुछ महापुरषों ने अपनी मातृ भाषा हिंदी को माध्यम से लोगों को जागरूक करने का काम किया और क्षेत्रीय भाषा में अपनी अभिव्यक्ति और विचारों से आम-जन मानस को अवगत कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी और उन महापुरषों की मेहनत रंग भी लायी, देश आज़ाद हो गया अंग्रेजों की गुलामी से. विश्व के सबसे बड़े और लोकतान्त्रिक देश का संविधान बना जिसे संग्रहित करने का कार्य डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी ने किया, लेकिन यह कार्य उन्होंने मराठी भाषा में में सम्पादित किया जिसे बाद में हिंदी में अनुवादित किया गया. इतने बड़े देश में जहाँ यह कहावत कही जाती जाती है की "कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी." लेकिन फिर भी संविधान का अनुवाद हिंदी में किया गया.
देश की आज़ादी के बाद हमारे देश के प्रधानमंत्री ने हिंदी को राज भाषा घोषित किया, और यह बयान दिया की हमारी राष्ट्र भाषा का प्रयोग किया जायेगा, ऐसे में जो क्षेत्र हिंदी भाषा की पकड़ से दूर हैं वहाँ पर सरकारी काम-काज क्षेत्रीय भाषाओँ के साथ-साथ अंग्रेजी में होने चाहिए. आज देश प्रत्यक्ष रूप से आज़ाद है, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से गुलामी की बात हमारे प्रधानमत्री जी ने कह डाली है.  आज हम भाषा की गुलामी झेल रहें हैं.... जिसका परिचायक है "हिंदी दिवस" .
मै ये जानना चाहता हूँ की जब हिंदी देश की राज भाषा है तो हमारी न्यायपालिका... हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में हिंदी में पैरवी की इजाजत क्यूँ नहीं दी गयी है? क्यूँ सैन्य सुरक्षा का कोई भी फरमान हिंदी भाषा में नहीं दिया जाता...? जबकि हमारे संविधान में ऐसी कोई धारा ऐसा कोई अनुछेद नहीं है फिर भी अपनी भाषा का इतना अपमान क्यूँ?
आप लोग सोच रहे होंगे कल था हिंदी दिवस और आज मै ये बातें क्यूँ लिख रहा हूँ...? कारण एकदम स्पष्ट है का दिन भर क्या चला और लोगों के या हिंदी के सेवकों की क्या राय थी को जानने की... 
पर अफ़सोस लोगों की अभिव्यक्ति हिंदी दिवस मनाने तक ही सीमित सी लगी... देश की नीति स्वार्थों के बलबूते पर कदापि नहीं चला करती. एक देश, एक ध्वज, एक संविधान और एक भाषा प्रत्येक नागरिक का नारा होना चाहिए... लेकिन जिस देश की सर्वोच्च न्यायपालिका ही अपनी राष्ट्र भाषा की इज्ज़त नहीं करती, उसे आदर नहीं देती, वह भाषा उस देश की राज भाषा कैसे हो सकती है? और कैसे दूसरे देशों से आये हुए घुसपैठिये हिंदी को अपने भाषा स्वीकार करेंगे...? आखिर कैसे...? और कब तक हम करते रहेंगे अपनी ही भाषा का दिवस मनाने का दिखावा...? आखिर कब तक...?
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Atul Kumar
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Friday, June 08, 2012

पर्यावरण की दशा और दिशा


परि-आवरण। परि अर्थात् चारों ओर, आवरण अर्थात् ढका हुआ या रुका हुआ।
आज पर्यावरण की दशा और दिशा को समझने के लिए प्रकृति को समझना बहुत जरुरी हो गया है. पर्यावरण और प्रकृति दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु हैं, लेकिन आज के दौर में लोगों ने इसे अलग-अलग नजरिये से देखना शुरू कर दिया है. जो कि बहुत ही भ्रमात्मक और भयावह है.
आज हर व्यक्ति पर्यावरण की बात करता है, प्रदूषण से बचाव के उपाय सोचता है। व्यक्ति स्वच्छ और प्रदूषण-मुक्त पर्यावरण में रहने के अधिकारों के प्रति सजग होने लगा है और अपने दायित्वों को समझने लगा है। वर्तमान में विश्व ग्लोबल वार्मिंग के सवालों से जूझ रहा है। इस सवाल का जवाब जानने के लिए विश्व के अनेक देशों में वैज्ञानिकों द्वारा प्रयोग और खोजें हुई हैं। उनके अनुसार अगर प्रदूषण फैलने की रफ्तार इसी तरह बढ़ती रही तो अगले दो दशकों में धरती की औसत तापमान 0.5 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक के दर से बढ़ेगा। यह चिंताजनक है।
तापमान की इस वृद्धि में विश्व के सारे जीव-जंतु बेहाल हो जाएँगे और उनका जीवन खतरे में पड़ जाएगा। पेड़-पौधों में भी इसी तरह का बदलाव आएगा। सागर के आस-पास रहने वाली आबादी पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ेगा। जल स्तर ऊपर उठने के कारण सागर तट पर बसे ज्यादातर शहर इन्हीं सागरों में समा जाएंगे। हाल ही में कुछ वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि जलवायु में बिगाड़ का सिलसिला इसी तरह जारी रहा तो कुपोषण और विषाणुजनित रोगों से होने वाली मौतों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हो सकती है। जलवायु परिवर्तन से हर साल पचास लाख लोग बीमार पड़ रहे हैं।
 इस पारिस्थितिक संकट से निपटने के लिए मानव को सचेत रहने की जरूरत है। दुनिया भर की राजनीतिक शक्तियां इस बहस में उलझी हैं कि गरमाती धरती के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए। अधिकतर राष्ट्र यह मानते हैं कि उनकी वजह से ग्लोबल वार्मिग नहीं हो रही है। लेकिन सच यह है कि इसके लिए कोई भी जिम्मेदार हो भुगतना सबको है।
 यह बहस जारी रहेगी लेकिन ऐसी कई छोटी पहल है जिसे अगर हम शुरू करें तो धरती को बचाने में बूंद भर योगदान कर सकते हैं। हम अगर अपने बचपन में वापस लौट कर देखें तो हम पाते हैं कि ये सारी चीजें जिस रूप में और जितनी मात्रा में पहले पाई जाती थीं, वैसे अब नहीं मिलती। पुराने जमाने में अपने देश में ढेर सारे जंगल थे। जंगलों में ऋषि-मुनियों के आश्रम हुआ करते थे। इन आश्रमों के आस-पास शिकार खेलना मना था। अनेक प्रकार के पशु-पक्षी और मृग निर्भय होकर घूमा करते थे। गांवों और कस्बों के मनोरम बागों में चिड़ियाँ चहचहाया करती थीं, बुलबुल और कोयलें गाया करती थीं। पेड़ के नीचे कि शीतल छाया और गर्मी में भी ठण्ड का एहसास जो आज सिर्फ कल्पनाओं, फिल्मों और ए. सी. कमरों में सिमट के रह गया है कोयल की कूक सुनने को मन तरस जाता है, मोर का नाच देखे बिना ही बरसात बीत जाती है। बाघ, चीता, हिरन, खरगोश आदि जंगलों के बजाय चिड़ियाघरों की शोभा बढ़ाने लगे हैं। हम ‘सुरसा’ राक्षसी के मुह की तरह बढ़ती अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जंगल काट डाले हैं, वन्य-जीवों का आवास उजाड़ दिया है। सब कुछ बदल चुका है क्या हमने कभी सोचा है की इतना बदलाव क्यूँ और कैसे हो गया? या ऐसे परिवर्तन जो हमे पल-प्रतिपल विनाश और मृत्यु की तरफ ले जा रहें हैं कब तक होते रहेंगे…?
जिस गति से विश्व का तापमान बढ रहा है उस आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि अब पृथ्वी की  आयु ज्यादा नहीं रही.. अगर हम अब भी नहीं चेते तो सम्पूर्ण मानव सभ्यता नष्ट हो जाएगी बढ़ते उच्च ताप और पिघलते ग्लेशियर से सारी पृथ्वी जल-मग्न हो जाएगी तब दुनिया के निर्माण के लिए कोई श्रद्धा-मनु नहीं होंगे… न ही आदम और हौव्वा आयेंगे इस पृथ्वी को बचने... अगर हम अपने आपको और अपने वातावरण को बचाना चाहते हैं तो अब समय आ गया है बदलाव का… हमे बदलाव लाना है वृक्षों की कटाई पर रोक लगाकर नये वृक्षों को रोपने की और उन्हें पोषित करने के लिए... बदलाव हमे लाना होगा भौतिकवादी युग से निकलने के लिए और प्रकृति के संरक्षण और उस पर निर्भरता के लिए… 
आज का युग पर्यावरणीय चेतना का युग है। हर व्यक्ति अपने पर्यावरण के प्रति चिन्तित है। ज्ञान और विज्ञान की हर शाखा के विद्वान, चिन्तक पर्यावरण की सुरक्षा और संचालन के प्रति जागरुक हैं। आज हर व्यक्ति स्वच्छ और प्रदूषण-मुक्त पर्यावरण में रहने के अपने अधिकारों के प्रति सजग होने लगा है और अपने दायित्वों को समझने लगा है। यही कारण है कि आज ज्ञान-विज्ञान की ऐसी कोई भी विषय-शाखा नहीं है, जिसमें पर्यावरण संबंधी समस्याओं की चर्चा न हो।
 वे सारी स्थितियाँ, परिस्थितियाँ का प्रभाव जो किसी भी प्राणी या प्राणियों के विकास पर चारों ओर से प्रभाव डालते हैं, वह उसका पर्यावरण है। वास्तव में पर्यावरण में वह सब कुछ सम्मिलित है, जिसे हम अपने चारों ओर देखते हैं,  जल, स्थल, वाय़ु, मनुष्य, पशु (जलचर, थलचर, नभचर), वृक्ष, पहा़ड़, घाटियाँ एवं भू-दृश्य आदि सभी पर्यावरण के भाग हैं। अगर पर्यावरण के एकीकृत रूप को देखा जाए तो हम देख सकते हैं कि प्रत्येक पर्यावरण घटक में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से ऊर्जा का उपयोग निश्चित है। तालिका में पर्यावरण के विभिन्न घटकों को दर्शाया गया है।
 जरा सोचिये, हमारे चारों ओर किस चीज़ का आवरण है ? वे कौन-कौन सी चीज़ें हैं, जिनसे हम घिरे हैं ? हमारे चारों ओर हवा है, पेड़-पौधे हैं, पशु–पक्षी हैं, मिट्टी है, पानी है, और ऊपर चाँद-सितारें हैं। अतः ये सारी चीजें हमारे पर्यावरण के अंग हैं और इन्हीं से मिलकर बना है हमारा पर्यावरण। जब बड़े लोग पर्यावरण की बात करते हैं, उसके सुरक्षा और संतुलन के प्रति चिंता व्यक्त करते हैं, तो उनका तात्पर्य इन सारी चीजों से होता है।
 हमे ऐसा लगता है कि ये सारी चीजें तो हमारे आस-पास सदियों से पाई जाती हैं, और पाई जाती रहेंगी तो फिर हमे  चिंता किस बात की है ?
दरअसल, चिंता की बात यह है कि हमारी जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ अन्य जीवों, पशु-पक्षियों और पौधों के विलुप्त हो जाने की आशंका बढ़ती जा रही है। जैसे-जैसे हमारी जनसंख्या बढ़ रही है, उद्योग-धंधों का विकास हो रहा है, वैसे-वैसे हमारे पर्यावरण को खतरा बढ़ रहा है।
 कल-कारखानों से निकलने वाली विषैली गैसें हमारे वायुमण्डल को जहरीला बना रही हैं। इन कारखानों से निकलने वाले व्यर्थ पदार्थ हमारे नदी-नालों और मिट्टी को प्रदूषित कर रहे हैं। इस प्रकार हम मनुष्यों के ही स्वास्थ्य और जीवन के लिए खतरा होता जा रहा है। चिंता की बात यही है।
 पर्यावरण का विषय-क्षेत्र इन सारी चिंताओं को अपने-आप में समेटे हुए है। पर्यावरण संबंधी चिंताओं ने समूचे मानव समुदाय को झकझोर कर रखा दिया है। कहा जाता है कि मानव इस जीवन जगत् में सबसे बुद्धिमान प्राणी है। शायद यह कहना सच भी है, लेकिन पर्यावरण की समस्या ने मानव बुद्धि को चकरा दिया है।
सारी मानव जाति आज के ऐसे दोराहे पर खड़ी है जहाँ से सामने की दिशा में पूर्वत्तर आगे बढ़ते जाना अपने को मौत के मुंह में ढकेलने के बराबर है। लेकिन लौटकर पीछे जाना स्वयं ही जंगली आदम-सभ्यता को स्वीकार लेना होगा। समस्या सचमुच बड़ी जटिल है। पीछे लेना होगा। पीछे लौटकर न तो हम मानव सभ्यता के गौरवपूर्ण इतिहास को झुठलाना चाहेंगे और न ही आगे बढ़ते हुए अपनी सुंदर सभ्यता नष्ट करना पसंद करेंगे।
 ‘इधर मौत उधर खाई, के इस द्वंद्व को मिटाने का एक ही उपाय है। एक नये रास्ते का निर्माण, एक नई दिशा में प्रस्थान, इसी नई दिशा की खोज का प्रयास है पर्यावरण विज्ञान। लेकिन हम किसी भी दिशा में तो चल नहीं सकते। प्रकृति का संतुलन बड़ा नाजुक है।
 इस नाजुक संतुलन को बनाए रखते हुए ही हम अपनी नई दिशा तलाश सकते हैं। कभी भी अगर हम चूके तो पहाड़ी से फिसलते हुए व्यक्ति की तरह कहाँ जा गिरेंगे, कोई ठिकाना नहीं।


Atul Kumar
            E-Mail. atul.jmi1@hotmail.com
            Blog: http://suryanshsri.blogspot.com/

Saturday, March 24, 2012

Shaheede-Aazam-Bhagatsingh



23 मार्च को शहीद दिवस के रूप में मनाने के लिए देश भर में लोगों ने काम कर डाले हैं   किसी ने एन जी ओ के माध्यम से तो किसी ने ट्रस्ट बना कर... बस किसी तरह से सरकारी धन के लूट के  रास्ते बनते रहें, चाहे वह रास्ता किसी की शहादत का हो या किसी भी तरह का... लोगों को सिर्फ एक ढाल चाहिए वो सभी को शहीद बता कर पैसे कमा लेंगे... हलाकि ये बातें इस समय कोई मायने नहीं रखती हैं; जब हम एक ऐसे व्यक्तित्व की बात कर रहे हैं जोकि अपने आपमें में एक आग था, एक तूफान था जिसके सामने अंग्रेजी शासन ने घुटने टेक दिए थे... हमारे राष्ट्रपिता को भी उसके बढ़ते हुए कद से खौफ का अहसास होने लगा था आज मै बात करना चाहता हूँ शहीदे-आज़म-भगतसिंह जी कि...
मै एक साधारण आदमी और भारतीय होने के नाते इस विभूति पर बात करने के लायक तो नहीं हूँ पर मै ही अधिकृत व्यक्ति हूँ, जो की शहीदे-आज़म-भगतसिंह के बारे में, उनके जीवन से जुड़े हर पहलू पर बात कर सके  भगतसिंह के बारे में अगर हम साधारण भारतीय लोग गम्भीरतापूर्वक बात नहीं करेंगे तो और कौन करेगा? मैं किसी भावुकता या तार्किकता की वजह से भगतसिंह के व्यक्तित्व को समझने की कोशिश कभी नहीं करना चाहता इतिहास और भूगोल, सामाजिक परिस्थितियों और तमाम बड़ी उन ताकतों की, जिनकी वजह से भगतसिंह का हम मूल्यांकन करते हैं, अनदेखी करके भगतसिंह को देखना उचित नहीं होगा
पहली बात यह कि "दुनिया के इतिहास में 24 वर्ष की उम्र भी जिसको नसीब नहीं हो पाई, उनसे बड़ा बुद्धिजीवी कोई हुआ है?" उस शहीदे-आज़म-भगतसिंह का यह चेहरा जिसमें उनके हाथ में एक किताब हो-चाहे कार्ल मार्क्स की दास कैपिटल, तुर्गनेव या गोर्की या चार्ल्स डिकेन्स का कोई उपन्यास, अप्टान सिन्क्लेयर या टैगोर की कोई किताब-ऐसा उनका चित्र नौजवान पीढ़ी के सामने प्रचारित करने का कोई भी कार्य भारत की सरकारी और गैर-सरकारी मशीनरी सहित भगतसिंह के प्रशंसक ने भी नहीं किया जो की भगतसिंह की असली पहचान है
भगत सिंह को किताबों में ही कैदी बना कर रख दिया गया है उनको किताबों से बाहर लाना ही उस नौजवान देशभक्त के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी भगतसिंह विचारों के तहखाने में कैद है। उनको बहस के केन्द्र में लाएं भगतसिंह ने कहा था कि “ये बड़े बड़े अखबार तो बिके हुए हैं, इनके चक्कर में क्यों पड़ते हो?” भगतसिंह और उनके साथी छोटे छोटे ट्रैक्ट 16 और 24 पृष्ठों की पत्रिकाएं छाप कर आपस में बांटते थे यदि हम यही कर सकें तो इतनी ही सेवा भगतसिंह के लिए उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए बहुत है विचारों की शान पर अगर कोई चीज चढ़ेगी तो वह तलवार बन जाती है, और जो सारी भ्रांतियों को निस्त-नाबुत कर देगी यह भगतसिंह ने हमको सिखाया था ऐसी कुछ बुनियादी बातें हैं जिनकी तरफ हम सभी को अब ध्यान देना ही होगा
भगतसिंह की उम्र का कोई भी व्यक्ति क्या भारतीय राजनीति का धूमकेतु नहीं बन पाया महात्मा गांधी, विवेकानन्द भी नहीं औरों की तो बात ही छोड़ दें पूरी दुनिया में भगतसिंह से कम उम्र में किताबें पढ़कर अपने मौलिक विचारों का प्रवर्तन करने की कोशिश किसी ने नहीं की लेकिन भगतसिंह का यही चेहरा सबसे अपरिचित और अप्रचारित है इस उज्जवल चेहरे को वे लोग भी देखना नहीं चाहते जो की अपने को सरस्वती के सच्चे साधक मानते हैं ऐसे लोग भी शहीदे-आज़म-भगतसिंह को सबसे बड़ा बुद्धिजीवी कहने में हिचकते हैं
मैं डॉ. राम मनोहर लोहिया के शब्दों में महात्मा गांधी से भी शिकायत करता हूँ कि 'हिन्द स्वराज' नाम की आपने जो अमर कृति 1909 में लिखी वह अपनी मातृभाषा गुजराती में लिखी उसे आप देवनागरी में भी लिख सकते थे जो काम गांधी और टैगोर नहीं कर सके जो काम हिन्दी के वरिष्ठ लेखक ठीक से नहीं कर सके, उस पर साहसपूर्वक बात को कह कर भगतसिंह जैसे 17 साल के तरुण ने भारत के इतिहास में दीपक का कार्य किया और हमारा मार्ग प्रशस्त किया उनके ज्ञान-पक्ष की तरफ हम पूरी तौर से अज्ञान बने हैं फिर भी भगतसिंह की जय बोलने में हमारा कोई मुकाबला नहीं है

जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा भी है कि 1928 का वर्ष भारी उथलपुथल का, भारी राजनीतिक हलचल का वर्ष था 1930 में कांग्रेस का रावी अधिवेशन हुआ, 1928 से 1930 के बीच ही कांग्रेस की हालत बदल गई जो कांग्रेस केवल निवेदन करती थी, अंग्रेज से यहां से जाने की बातें करती थी उसको मजबूर होकर लगभग अर्ध-हिंसक आंदोलनों में भी अपने आपको कभी-कभी झोंकना पड़ा यह भगतसिंह का कांग्रेस की नैतिक ताकत पर मर्दाना प्रभाव था हिन्दुस्तान की राजनीति में कांग्रेस में पहली बार युवा नेतृत्व अगर कहीं उभर कर आया है तो सुभाष चन्द्र बोष और जवाहरलाल नेहरू के रूप में है कांग्रेस में 1930 में जवाहरलाल नेहरू नेता बनकर 39 वर्ष की उम्र में राष्ट्रीय अध्यक्ष बने उनके हाथों तिरंगा झंडा फहराया गया और उन्होंने कहा- "पूर्ण स्वतंत्रता ही हमारा लक्ष्य है।" भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का यह चरित्र मुख्यत: भगतसिंह की वजह से बदला
भगतसिंह भारत के पहले नागरिक, विचारक और नेता हैं, जिन्होंने ने कहा था "भारत केवल किसान और मजदूर के दम पर नहीं आगे बढ सकता, जब तक नौजवान उसमें शामिल नहीं होंगे, तब तक कोई क्रांति नहीं हो सकती भगतसिंह ने पहली बार कुछ ऐसे बुनियादी मौलिक प्रयोग भारत की राजनीतिक प्रयोगशाला में किए हैं जिसकी जानकारी तक लोगों को नहीं है भगतसिंह के मित्र कॉमरेड सोहन सिंह उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी में ले जाना चाहते थे, लेकिन भगतसिंह ने मना कर दिया जो आदमी कट्टर मार्क्सवादी था, जो रूस के तमाम विद्वानों की पुस्तकों को पढ़ते रहते थे आप कल्पना करेंगे कि जिन्हें कुछ हफ्ता पहले, कुछ दिनों पहले, यह मालूम पड़े कि उसको फांसी होने वाली है। उसके बाद भी रोज किताबें पढ़े? लेकिन भगतसिंह का व्यक्तित्व ऐसा ही था, भगतसिंह मृत्युंजय थे भारत के इतिहास में गिने-चुने ही मृत्युंजय हुए हैं.
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला।।



इसी जोशीले गीत के साथ 23  मार्च 1931  को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन जैसे वक्ता की नहीं बल्कि "राम प्रसाद बिस्मिल" की जीवनी पढ़ रहे थे। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो ।" फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किए तथा फिर इसे बोरियों में भर कर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आए । इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंककर भाग जाना ही उचित समझा। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया । और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये।
भगतसिंह संभावनाओं के जननायक थे  वे हमारे अधिकारिक, औपचारिक नेता बन नहीं पाए इसलिए सब लोग भगतसिंह से डरते हैं- अंग्रेज और भारतीय हुक्मरान दोनों उनके विचारों को क्रियान्वित करने में सरकारी कानूनों की घिग्गी बंध जाती है संविधान पोषित राज्य व्यवस्थाओं में यदि कानून ही अजन्मे रहेंगे तो लोकतंत्र की प्रतिबद्धताओं का क्या होगा? भगतसिंह ने इतने अनछुए सवालों को र्स्पश किया है कि उन पर अब भी शोध होना बाकी है भगतसिंह के विचार केवल प्रशंसा के योग्य नहीं हैं, उन पर क्रियान्वयन कैसे हो-इसके लिए बौद्धिक और जन आन्दोलनों की जरूरत है
भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि देश के उद्योगपतियो एक हो जाओ. भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि अपनी बीवी के जन्म-दिन पर हवाई जहाज तोहफे में भेंट करो और उसको देश का गौरव बताओ. भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि वकीलों एक हो जाओ क्योंकि वकीलों को एक रखना और मेंढकों को तराजू पर रखकर तौलना बराबर है भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि देश के डॉक्टरों को एक करो। उनको मालूम था कि अधिकतर डॉक्टर केवल मरीज के जिस्म और उसके प्राणों से खेलते हैं उनका सारा ध्येय इस बात का होता है कि उनको फीस ज्यादा से ज्यादा कैसे मिले? अपवाद जरूर हैं; लेकिन अपवाद नियम को ही सिद्ध करते हैं इसलिए भगतसिंह ने कहा था दुनिया के मजदूरो एक हो। इसलिए भगतसिंह ने कहा था कि किसान मजदूर और नौजवान की एकता होनी चाहिए भगतसिंह पर राष्ट्रवाद का नशा छाया हुआ था उनका रास्ता मार्क्स के रास्ते से निकल कर आता था एक अजीब तरह का राजनीतिक प्रयोग भारत की राजनीति में होने वाला था लेकिन भगतसिंह काल कवलित हो गए, असमय चले गए हमारे देश में तार्किकता, बहस, लोकतांत्रिक आजादी, जनप्रतिरोध, सरकारों के खिलाफ अराजक होकर खड़े हो जाने का अधिकार छिन रहा है हमारे देश में मूर्ख राजा हैं वे सत्ता पर लगातार बैठ रहे हैं, जिन्हें ठीक से हस्ताक्षर भी करना नहीं आता ऐसे लोग देश के राजनीतिक चेक पर हस्ताक्षर कर रहे हैं हमारे यहां "आई एम सॉरी" जैसी एक सर्विस आ गई है. आई.ए.एस. आई.पी.एस.  की नौकरशाही है उसमें अब भ्रष्ट अधिकारी इतने ज्यादा हैं कि अच्छे अधिकारी ढूंढ़ना मुश्किल है हमारे देश में निकम्मे साधुओं की जमात है, वे निकम्मे हैं लेकिन मलाई खाते हैं इस देश के मेहनतकश मजदूर के लिए अगर कुछ रुपयों के बढ़ने की बात होती है, सब उनसे लड़ने बैठ जाते हैं हमारे देश में असंगठित मजदूरों का बहुत बड़ा दायरा है, हम उनको संगठित करने की कोशिश नहीं करते, हमारे देश में पहले से ही सुरक्षित लोगों के अधिकारों की सुरक्षा के कानून बने हुए हैं लेकिन भारत की संसद ने आज तक नहीं सोचा कि भारत के किसानों के भी अधिकार होने चाहिए भारतीय किसान अधिनियम जैसा कोई अधिनियम नहीं है किसान की फसल का कितना पैसा उसको मिले वह कुछ भी तय नहीं है एक किसान अगर सौ रुपये के बराबर का उत्पाद करता है तो बाजार में उपभोक्ता को वह वस्तु हजार रुपये में मिलती है आठ-नौ सौ रुपये बिचौलिए और दलाली में खाए जाते हैं। उनको भी सरकारी संरक्षण प्राप्त होता है, और सरकार खुद भी दलाली ही करती है ऐसे किसानों की रक्षा के लिए भगतसिंह खड़े हुए थे
भगतसिंह समाजवाद और धर्म को अलग-अलग समझते थे विवेकानंद समाजवाद और धर्म को समायोजित करते थे विवेकानंद समझते थे कि हिन्दुस्तान की धार्मिक जनता को धर्म के आधार पर समाजवाद की घुट्टी अगर पिलायी जाए तो शायद ठीक से समझ में बात आएगी गांधीजी भी लगभग इसी रास्ते पर चलने की कोशिश करते थे लेकिन भगतसिंह भारत के पहले रेशनल थिंकर, पहले विचारशील व्यक्ति थे, जो धर्म के दायरे से बाहर थे
श्रीमती दुर्गादेवी वोहरा को अंग्रेजी जल्लादों से बचाने के लिए जब भगतसिंह अपने केश काटकर प्रथम श्रेणी के डब्बे में कलकत्ता तक की यात्रा करनी पड़ी तो लोगों ने उनकी कड़ी आलोचना की। उन्होंने कहा कि सिख होकर अपने केश कटा लिए आपने? हमारे यहां तो पांच चीजें रखनी पड़ती हैं हर सिख को उसमें केश भी आता है यह आपने क्या किया? कैसे सिख हैं आप! जो सज्जन सवाल पूछ रहे थे वे शायद धार्मिक व्यक्ति थे भगतसिंह ने एक धार्मिक व्यक्ति की तरह जवाब दिया "मेरे भाई तुम ठीक कहते हो, मैं सिख हूं, गुरु गोविंद सिंह ने कहा है कि अपने धर्म की रक्षा करने के लिए अपने शरीर का अंग-अंग कटवा दो मैंने केश कटवा दिए, अब मौका मिलेगा तो अपनी गरदन कटवा दूंगा।" यह तार्किक विचारशीलता भगतसिंह की है उस नए भारत में वे 1931 के पहले कह रहे थे जिसमें भारत  के गरीब आदमी, इंकलाब और आर्थिक बराबरी के लिए, समाजवाद को पाने के लिए, देश और चरित्र को बनाने के लिए, दुनिया में भारत का झंडा बुलंद करने के लिए धर्म जैसी चीज की हमको जरूरत नहीं होनी चाहिए
भगतसिंह ने शहादत दे दी, फकत इतना कहना भगतसिंह के कद को छोटा करना है जितनी उम्र में भगतसिंह कुर्बान हो गए, इससे कम उम्र में मदनलाल धींगरा और शायद करतार सिंह सराभा चले गए थे भगतसिंह ने तो स्वयं मृत्यु का वरण किया यदि वे पंजाब की असेंबली में बम नहीं फेंकते तो क्या होता? कांग्रेस के इतिहास को भगतसिंह का ऋणी होना पड़ेगा लाला लाजपत राय, बिपिनचंद्र पाल और बालगंगाधर तिलक ने कांग्रेस की अगुआई की थी, भगतसिंह लाला लाजपत राय के समर्थक और अनुयायी शुरू में थे
भूगोल और इतिहास से काटकर भगतसिंह के कद को एक बियाबान में नहीं देखा जा सकता जब लाला लाजपत राय की जलियावाला बाग की घटना के दौरान लाठियों से कुचले जाने की वजह से मृत्यु हो गई तो भगतसिंह ने केवल उस बात का बदला लेने के लिए एक सांकेतिक हिंसा की और सांडर्स की हत्या हुई भगतसिंह चाहते तो जी सकते थे, यहां वहां आजादी की अलख जगा सकते थे। बहुत से क्रांतिकारी भगतसिंह के साथी जिए ही लेकिन भगतसिंह ने सोचा कि यही वक्त है जब इतिहास की सलवटों पर शहादत की इस्तरी चलाई जा सकती है जिसमें वक्त के तेवर पढ़ने का मेधा  हो, ताकत हो, वही इतिहास पुरुष होता है
भगतसिंह ने कहा था जब तक भारत के नौजवान भारत के किसान के पास नहीं जाएंगे, गांव नहीं जाएंगे, उनके साथ पसीना बहाकर काम नहीं करेंगे तब तक भारत की आजादी का कोई मुकम्मिल अर्थ नहीं होगा मैं हताश तो नहीं हूं लेकिन निराश लोगों में से हूं, भारत के 18 वर्ष के नौजवान जो वोट देने का अधिकार रखते हैं उनको राजनीति की समझ नहीं है जब अस्सी-नब्बे वर्ष के लोग सत्ता की कुर्सी का मोह नहीं छोड़ सकते तो नौजवान को भारत की राजनीति से अलग करना मुनासिब नहीं है लेकिन राजनीति का मतलब कुर्सी नहीं है
हम एक अंतर्राष्ट्रीय साजिश का शिकार हैं हमको यही बताया जाता है कि डॉ. अम्बेडकर ने भारत के संविधान की रचना की भारत के स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों ने भारत के संविधान की रचना की संविधान की पोथी को बनाने वाली असेम्बली का इतिहास पढ़ें सेवानिवृत्त आई.सी.एस . अधिकारी, दीवान साहब और राय बहादुर और कई पश्चिमाभिमुख बुद्धिजीवियों ने मूल पाठ बनाया देशभक्तों ने उस पर बहस की, उस पर दस्तखत करके उसको पेश कर दिया संविधान की पोथी का अपमान नहीं होना चाहिए लेकिन जब हम रामायण, गीता, कुरान शरीफ, बाईबिल और गुरु ग्रंथ साहब पर बहस कर सकते हैं कि इनके सच्चे अर्थ क्या होने चाहिए तो हमको हिन्दुस्तान की उस पोथी की जिसकी वजह से सारा देश चल रहा है, आयतों को पढ़ने, समझने और उसके मर्म को बहस के केन्द्र में डालने का भी अधिकार मिलना चाहिए. यही भगतसिंह का रास्ता है
            बड़ी खुशनसीब रही होगी वह कोख और गर्व से चौडा हो गया होगा उस बाप का सीना जिस दिन देश की आजदी के खातिर उसका लाल फांसी चढ़ गया था। हॉं आज उसी माँ-बाप के लाल भगत सिंह का शहीद दिवस है। आज देश भगत सिंह की 81वीं शहादत वर्ष पर भावभीनी श्रद्धांजलि देने जा  रहा है, 23 मार्च 1931 को शहीदे-आज़म-भगतसिंह को राजगुरु तथा सुखदेव के साथ फाँसी दे दी गयी थी। भगत सिंह का जन्‍म 28 सितंबर 1907 में एक देश भक्‍त क्रान्तिकारी परिवार में हुआ था। सही कह गया कि "शेर के घर शेर ही जन्‍म लेता है।" उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये। इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया था। पंडित राम प्रसाद "बिस्मिल"  ने अपनी आत्म-कथा में जो-जो दिशा-निर्देश दिये थे, भगतसिंह ने उनका अक्षरश: पालन किया। उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबन्दी समझा जाये तथा फाँसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये। फाँसी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था -

"उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है  

हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है

दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख का क्या ग़िला करें।

सारा जहाँ अदू सही, आओ! मुक़ाबला करें।।"




           इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्र शेखर "आज़ाद" से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।
हे देश के सच्चे सपूत आपको शत-शत नमन...
जय हिंद...


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Atul Kumar
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Thursday, March 08, 2012

Mahila aur antarrashtriya mahila diwas

March 8th, 2012

          आज एक ऐसा अवसर है जब भारत भर में होली और विश्व में महिला दिवस मनाया जा रहा है....  होली हिरनकश्यप वध और प्रहलाद की सुरक्षा में मनाया जाता है.... और महिला दिवस महिलाओं को उनके सम्मान के लिए मनाया जाता है... महिला एक ऐसा शब्द है जिससे आज के दौर के यूँ  कहूँ की  हर  दौर के लोग परिचित रहे हैं और होते रहेंगे….तो शायद यह गलत नहीं होगा…हमने अपनी संस्कृति के अनुसार बहुत से रूपों में महिला को जाना और पहचाना है, जिसमे माँ, बहन, बेटी, बहु  और पत्नी  मुख्य  रूप  से हमे देखने को मिले हैं, लेकिन ये सारे रिश्ते पुरुषों के बिना बेईमानी लगते  हैं कुछ ऐसा समीकरण  बना हुआ है समाज का… क्या पुरुषों के बिना स्त्री का अपना कोई वजूद नहीं है क्या …?
          भारत जैसा देश, जो अपनी विशालता, लोकतांत्रिकता और सर्वधर्म सम्मान के विधान के लिए जाना जाता है, जिस देश की पहचान रिश्तों की अनूठी कहानी को बयाँ करता है, जिस देश में स्त्री को दुर्गा, सरस्वती और काली जैसी आदि शक्तियों से संबोधित किया गया है, और ये संबोधन आज से नहीं आदि से होता आ रहा है. फिर भी हम आज तक स्त्री के सही मायनो को न तो खुद समझ पाए और न ही दूसरों को समझा पाने में सफल हो पाए हैं…..कारण भारत के धर्म ठेकेदारों की दोहरी नीति…..
          हमारे देश में एक तरफ तो स्त्री को माँ, बहन, बेटी, बहु, बेटी और देवी का स्थान दिया गया है जो की हमारे वेद-पुराणों और शास्त्रों में निहित है  और दूसरी तरफ राम चरित्र मानस में  हमारे महान रचयिता तुलसीदास जी ने लिख दिया है की:
“ढोल गवांर शुद्र पशु नारी, ये सब प्रताड़ना के अधिकारी.”
क्या मतलब है इस पंक्ति का...? शायद धर्माधिकारी इस बात को किसी अन्य पहलु से लें… लेकिन इन्होने भी यहाँ पर स्त्री को ही प्रताड़ना का अधिकारी बताया है… क्यूँ …? तुलसीदास जी इतने नाराज क्यूँ है स्त्रियों पर? ये शायद पूरी तरह से भूल गए थे की इनको इस लायक बनाने का श्रेय स्त्री, इनकी पत्नी रत्ना को ही जाता है… तुलसीदास जी ने न तो बढ़ी हुई नदी की चिंता की और न ही घनघोर अँधेरी रात की…. कामातुरता तो इतनी थी की इन्हें रस्सी और सांप में भी कोई फर्क नहीं दिखा… पत्नी (स्त्री) ने ही समझाया की अगर इतनी मोहब्बत और लगन तुम भगवान से करते तो सर्वस्व पा जाते, जितनी तुम मुझसे मोहब्बत करते हो… तुलसीदास लौट पड़े चोट खाकर… शायद उसी चोट का बदला ले रहे हैं... जिसने उन्हें स्वर्ग का रास्ता बताया, जिसने उन्हें दुनिया भर में अपनी पहचान का रास्ता दिखाया. उसी को इन साहब ने प्रताड़ना के लायक और नरक का द्वार बता डाला… स्त्री की गिनती ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, में कर रहे हैं, और साथ ही साथ यह भी कह रहे हैं की उसको पीटो…यह सब पीटने के ही लायक हैं.
हमारे देश में हर लड़की को एक ही बात बोली जाती है की बेटी सीता बनकर रहना,मै जानना चाहता हूँ की आखिर सीता बनकर ही क्यूँ? शायद उनके पति (राम) और समाज उन पर शक कर सके? क्या अग्नि परीक्षा के बाद भी इन्हें ही घर के बाहर निकाला जा सके?  क्या वन-वास के लिए ही इन्हें सृष्टि ने रचा है? क्या अग्नि परीक्षा और विरह की पीड़ा हमेशा लड़कियों (स्त्रियों) को ही झेलनी होगी...? क्या वनवास भोगने के बाद भी सीता को ही घर और राज का त्याग करना होगा…? क्या हमेशा उर्मिला को ही लक्षमण की विरहवेदना को स्वीकारना होगा? इन सारी बातों पर क्या सोचने की जरुरत नहीं है? क्या स्त्रियाँ शक नहीं कर सकती? क्या अपने को प्रमाणित करने के लिए पुरुषों को अग्नि परीक्षा नहीं देनी चाहिए? क्या त्याग करना सिर्फ स्त्रियो के ही पक्ष में है? शायद एक बात, “पति परमेश्वर होता है.” का जो सगुफा सदियों से इन्हें सिखाया जाता है वो इस बात की आज्ञा नहीं देता है स्त्रियों को.
क्या अजीब बिडम्बना है हमारे समाज की हमे स्त्रियों, को कभी अपने से आगे समझा ही नहीं है.... हमारी धारणा है की स्त्री पुरुष की संपत्ति है…! शादी से पहले माँ-बाप की और शादी में कन्या दान के बाद पति की… कन्या दान..! जैसे की स्त्री कोई वस्तु है जो दान कर दी जाये…
संपूर्ण विश्व में जब महिला दिवस का आयोजन स्त्री उत्थान के लिए गत 8 मार्च को किया जाता है, तो इस दिवस को मानाने की ललक और लोगों का रुझान देखने को मिलता है. यहाँ तक की अफगानिस्तान, इरान, इराक और पकिस्तान जैसे देशों में भी महिला दिवस का आयोजन देखने को मिलता है… बीते कुछ वर्षों में महिलायें भी अपने हक को लेकर जागरूक हुई हैं…
इसका प्रमाण हमे अफगानिस्तान में हुए मुस्लिम महिलाओं के साथ बर्बरता में देखने को मिला भी, महिलाएं भले ही नकाब/ बुर्के में सही... पर विरोध के लिए आयीं और यह नज़ारा लोगों ने भी देखा… भारत में पिछले कुछ वर्षों में यहाँ की सरकार या यूँ कहें विश्व के समस्त देशों ने महिला आरक्षण की बात पर भरपूर जोर दिया गया है… और इस के लिए देशों की समाज सेवी संस्थानों ने भी साथ में आवाज बुलंद की है... “की महिलाओं को आरक्षण मिलना ही चाहिए…” आप खुद ही सोचिये की यह कहाँ तक सही है …? मै ये जानना चाहता हूँ की आरक्षण किसको मिलता है…?
जहाँ तक मैंने जाना है की आरक्षण उनको मिलता है जो की समाज के सताए हुए हैं… जो की हमेशा से शोषित होते रहे हैं…. जब महिलाओं के लिए ये बोला गया है की महिलाएं पुरुषों के कंधे से कन्धा मिलकर चल रही हैं, और चलती रहेंगी… तो फिर किस बात के शोषित और किस बात के सताए हुए …? बात गलत है; लोग यहाँ पर ये बोलने से पीछे नहीं हटेंगे की“ महिलाओं के साथ अत्याचार तो होते रहे हैं… उनको आरक्षण मिलना ही चाहिए…” तो फिर हमारा समाज किस बात के लिए उनको अभी तक इतनी बड़ी-बड़ी उपमाओं से इंगित करता रहा है…? विशेष अधिकार सिर्फ कमजोरों को दिए जाते हैं, ताकतवरों को विशेष अधिकार की जरुरत नहीं होती है. क्यूंकि हम उनके शरीर के हिस्से से आज इस लायक बने हैं… और यह कडुवा सच है की वह हमसे ज्यादा ताकतवर हैं...
अगर हमारा समाज स्त्रियों को आरक्षण देता भी है तो मेरा ये सोचना है की “क्या आज के इस दौर में सिर्फ आरक्षण से काम चल जायेगा? क्या जब तक हमारी सोच नहीं बदलती तब तक हम इस बात को मान पाएंगे की महिलाएं हमसे ऊपर हैं, क्या हमारा मनोविज्ञान इस बात को स्वीकार कर पायेगा की पुरुष स्त्रिओं से पीछे रहें…”
अगर हम इन बातों को आत्मसात कर सकते हैं तो मुझे नहीं लगता है की आरक्षण होना चाहिए. आरक्षण से क्या हम उस प्रतिमा, उस श्रद्धा का अपमान नहीं कर रहे हैं जो कि महिलाओं को पूजनीय बनाता है…? जहाँ तक मेरा मानना है की जिस देश, प्रान्त और घर की स्त्री गर्व से नहीं रह सकती उस के आस-पास रहने वाले लोग भी गौरवान्वित नहीं हो सकते… क्यूंकि हर गौरवान्वित पुरुष का जन्म एक स्त्री से ही होता है… अब ये हमे सोचना है की हम जिसके लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं ये उसके लिए क्या ये आरक्षण शब्द सही है? क्या जिसने हमे जन्म दिया है वो इतनी दीन-हीन है की हम उसे आरक्षित करें… ये तो हमारे लिए बहुत बुरी और शर्म की बात है.
हम पुरुषों के पास एक क्षमता है विचार की, तर्क की और वैज्ञानिक पहलु से सोचने की, स्त्री के पास क्षमता है प्रेम की, ह्रदय की, भावना की… अतः यह कहना मुश्किल है की इनमे किसको श्रेष्ठ कहें ... पुरुष यही समझता है की वह श्रेष्ठ है और स्त्री की दीनता उसने स्वीकार कर ली है, जो कि समझ में आता है. पर स्त्रियों ने भी स्वीकार कर ली…? वे भी मन ही मन में इस बात को मानने के लिए राजी हो गयी हैं की कहीं न कहीं वे पुरुष से कुछ कम हैं...
आज अगर महिलाओं को अपने आपको प्रमाणित करना है तो उन्हें सवाल उठने ही होंगे, समाज के विरुद्ध विद्रोह करना ही होगा… साथ ही साथ ये भूलना होगा की यह हमारी बेटी है, इसे हमने जन्म दिया है, और जो दूसरे घर से आ रही है वो मेरी अपनी नहीं है…ये भेदभाव मिटाना होगा... जब तक स्त्रियों के बीच का ये भेदभाव नहीं मिटता, जब तक स्त्री-स्त्री की दुश्मन बनी रहेगी तब तक न तो ये धर्मग्रन्थ इनके हक को दिला पाएंगे, न ही आरक्षण किसी काम आयेंगा और न ही विश्व भर में चलाया जा रहा महिला  दिवस का ये कार्यक्रम किसी हद तक कारगर सिद्ध होगा… आज के इस दौर में स्त्री को यह घोषणा करनी ही होगी की हमारी पृष्ठ भूमि अलग है, हमारे पास जीवन का और बड़ा उद्देश्य है, और बड़ा संदेश है… हममे ही जीवन को आनंदित करने की क्षमता है…
नारी मुक्ति के सम्बन्ध में विश्व भर में जाग्रति की लहर अपने आप में शुभ सन्देश तो है, जिसका स्वागत है परन्तु ये पर्याप्त नहीं है.



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