Saturday, March 24, 2012

Shaheede-Aazam-Bhagatsingh



23 मार्च को शहीद दिवस के रूप में मनाने के लिए देश भर में लोगों ने काम कर डाले हैं   किसी ने एन जी ओ के माध्यम से तो किसी ने ट्रस्ट बना कर... बस किसी तरह से सरकारी धन के लूट के  रास्ते बनते रहें, चाहे वह रास्ता किसी की शहादत का हो या किसी भी तरह का... लोगों को सिर्फ एक ढाल चाहिए वो सभी को शहीद बता कर पैसे कमा लेंगे... हलाकि ये बातें इस समय कोई मायने नहीं रखती हैं; जब हम एक ऐसे व्यक्तित्व की बात कर रहे हैं जोकि अपने आपमें में एक आग था, एक तूफान था जिसके सामने अंग्रेजी शासन ने घुटने टेक दिए थे... हमारे राष्ट्रपिता को भी उसके बढ़ते हुए कद से खौफ का अहसास होने लगा था आज मै बात करना चाहता हूँ शहीदे-आज़म-भगतसिंह जी कि...
मै एक साधारण आदमी और भारतीय होने के नाते इस विभूति पर बात करने के लायक तो नहीं हूँ पर मै ही अधिकृत व्यक्ति हूँ, जो की शहीदे-आज़म-भगतसिंह के बारे में, उनके जीवन से जुड़े हर पहलू पर बात कर सके  भगतसिंह के बारे में अगर हम साधारण भारतीय लोग गम्भीरतापूर्वक बात नहीं करेंगे तो और कौन करेगा? मैं किसी भावुकता या तार्किकता की वजह से भगतसिंह के व्यक्तित्व को समझने की कोशिश कभी नहीं करना चाहता इतिहास और भूगोल, सामाजिक परिस्थितियों और तमाम बड़ी उन ताकतों की, जिनकी वजह से भगतसिंह का हम मूल्यांकन करते हैं, अनदेखी करके भगतसिंह को देखना उचित नहीं होगा
पहली बात यह कि "दुनिया के इतिहास में 24 वर्ष की उम्र भी जिसको नसीब नहीं हो पाई, उनसे बड़ा बुद्धिजीवी कोई हुआ है?" उस शहीदे-आज़म-भगतसिंह का यह चेहरा जिसमें उनके हाथ में एक किताब हो-चाहे कार्ल मार्क्स की दास कैपिटल, तुर्गनेव या गोर्की या चार्ल्स डिकेन्स का कोई उपन्यास, अप्टान सिन्क्लेयर या टैगोर की कोई किताब-ऐसा उनका चित्र नौजवान पीढ़ी के सामने प्रचारित करने का कोई भी कार्य भारत की सरकारी और गैर-सरकारी मशीनरी सहित भगतसिंह के प्रशंसक ने भी नहीं किया जो की भगतसिंह की असली पहचान है
भगत सिंह को किताबों में ही कैदी बना कर रख दिया गया है उनको किताबों से बाहर लाना ही उस नौजवान देशभक्त के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी भगतसिंह विचारों के तहखाने में कैद है। उनको बहस के केन्द्र में लाएं भगतसिंह ने कहा था कि “ये बड़े बड़े अखबार तो बिके हुए हैं, इनके चक्कर में क्यों पड़ते हो?” भगतसिंह और उनके साथी छोटे छोटे ट्रैक्ट 16 और 24 पृष्ठों की पत्रिकाएं छाप कर आपस में बांटते थे यदि हम यही कर सकें तो इतनी ही सेवा भगतसिंह के लिए उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए बहुत है विचारों की शान पर अगर कोई चीज चढ़ेगी तो वह तलवार बन जाती है, और जो सारी भ्रांतियों को निस्त-नाबुत कर देगी यह भगतसिंह ने हमको सिखाया था ऐसी कुछ बुनियादी बातें हैं जिनकी तरफ हम सभी को अब ध्यान देना ही होगा
भगतसिंह की उम्र का कोई भी व्यक्ति क्या भारतीय राजनीति का धूमकेतु नहीं बन पाया महात्मा गांधी, विवेकानन्द भी नहीं औरों की तो बात ही छोड़ दें पूरी दुनिया में भगतसिंह से कम उम्र में किताबें पढ़कर अपने मौलिक विचारों का प्रवर्तन करने की कोशिश किसी ने नहीं की लेकिन भगतसिंह का यही चेहरा सबसे अपरिचित और अप्रचारित है इस उज्जवल चेहरे को वे लोग भी देखना नहीं चाहते जो की अपने को सरस्वती के सच्चे साधक मानते हैं ऐसे लोग भी शहीदे-आज़म-भगतसिंह को सबसे बड़ा बुद्धिजीवी कहने में हिचकते हैं
मैं डॉ. राम मनोहर लोहिया के शब्दों में महात्मा गांधी से भी शिकायत करता हूँ कि 'हिन्द स्वराज' नाम की आपने जो अमर कृति 1909 में लिखी वह अपनी मातृभाषा गुजराती में लिखी उसे आप देवनागरी में भी लिख सकते थे जो काम गांधी और टैगोर नहीं कर सके जो काम हिन्दी के वरिष्ठ लेखक ठीक से नहीं कर सके, उस पर साहसपूर्वक बात को कह कर भगतसिंह जैसे 17 साल के तरुण ने भारत के इतिहास में दीपक का कार्य किया और हमारा मार्ग प्रशस्त किया उनके ज्ञान-पक्ष की तरफ हम पूरी तौर से अज्ञान बने हैं फिर भी भगतसिंह की जय बोलने में हमारा कोई मुकाबला नहीं है

जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा भी है कि 1928 का वर्ष भारी उथलपुथल का, भारी राजनीतिक हलचल का वर्ष था 1930 में कांग्रेस का रावी अधिवेशन हुआ, 1928 से 1930 के बीच ही कांग्रेस की हालत बदल गई जो कांग्रेस केवल निवेदन करती थी, अंग्रेज से यहां से जाने की बातें करती थी उसको मजबूर होकर लगभग अर्ध-हिंसक आंदोलनों में भी अपने आपको कभी-कभी झोंकना पड़ा यह भगतसिंह का कांग्रेस की नैतिक ताकत पर मर्दाना प्रभाव था हिन्दुस्तान की राजनीति में कांग्रेस में पहली बार युवा नेतृत्व अगर कहीं उभर कर आया है तो सुभाष चन्द्र बोष और जवाहरलाल नेहरू के रूप में है कांग्रेस में 1930 में जवाहरलाल नेहरू नेता बनकर 39 वर्ष की उम्र में राष्ट्रीय अध्यक्ष बने उनके हाथों तिरंगा झंडा फहराया गया और उन्होंने कहा- "पूर्ण स्वतंत्रता ही हमारा लक्ष्य है।" भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का यह चरित्र मुख्यत: भगतसिंह की वजह से बदला
भगतसिंह भारत के पहले नागरिक, विचारक और नेता हैं, जिन्होंने ने कहा था "भारत केवल किसान और मजदूर के दम पर नहीं आगे बढ सकता, जब तक नौजवान उसमें शामिल नहीं होंगे, तब तक कोई क्रांति नहीं हो सकती भगतसिंह ने पहली बार कुछ ऐसे बुनियादी मौलिक प्रयोग भारत की राजनीतिक प्रयोगशाला में किए हैं जिसकी जानकारी तक लोगों को नहीं है भगतसिंह के मित्र कॉमरेड सोहन सिंह उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी में ले जाना चाहते थे, लेकिन भगतसिंह ने मना कर दिया जो आदमी कट्टर मार्क्सवादी था, जो रूस के तमाम विद्वानों की पुस्तकों को पढ़ते रहते थे आप कल्पना करेंगे कि जिन्हें कुछ हफ्ता पहले, कुछ दिनों पहले, यह मालूम पड़े कि उसको फांसी होने वाली है। उसके बाद भी रोज किताबें पढ़े? लेकिन भगतसिंह का व्यक्तित्व ऐसा ही था, भगतसिंह मृत्युंजय थे भारत के इतिहास में गिने-चुने ही मृत्युंजय हुए हैं.
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला।।



इसी जोशीले गीत के साथ 23  मार्च 1931  को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन जैसे वक्ता की नहीं बल्कि "राम प्रसाद बिस्मिल" की जीवनी पढ़ रहे थे। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो ।" फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किए तथा फिर इसे बोरियों में भर कर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आए । इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंककर भाग जाना ही उचित समझा। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया । और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये।
भगतसिंह संभावनाओं के जननायक थे  वे हमारे अधिकारिक, औपचारिक नेता बन नहीं पाए इसलिए सब लोग भगतसिंह से डरते हैं- अंग्रेज और भारतीय हुक्मरान दोनों उनके विचारों को क्रियान्वित करने में सरकारी कानूनों की घिग्गी बंध जाती है संविधान पोषित राज्य व्यवस्थाओं में यदि कानून ही अजन्मे रहेंगे तो लोकतंत्र की प्रतिबद्धताओं का क्या होगा? भगतसिंह ने इतने अनछुए सवालों को र्स्पश किया है कि उन पर अब भी शोध होना बाकी है भगतसिंह के विचार केवल प्रशंसा के योग्य नहीं हैं, उन पर क्रियान्वयन कैसे हो-इसके लिए बौद्धिक और जन आन्दोलनों की जरूरत है
भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि देश के उद्योगपतियो एक हो जाओ. भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि अपनी बीवी के जन्म-दिन पर हवाई जहाज तोहफे में भेंट करो और उसको देश का गौरव बताओ. भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि वकीलों एक हो जाओ क्योंकि वकीलों को एक रखना और मेंढकों को तराजू पर रखकर तौलना बराबर है भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि देश के डॉक्टरों को एक करो। उनको मालूम था कि अधिकतर डॉक्टर केवल मरीज के जिस्म और उसके प्राणों से खेलते हैं उनका सारा ध्येय इस बात का होता है कि उनको फीस ज्यादा से ज्यादा कैसे मिले? अपवाद जरूर हैं; लेकिन अपवाद नियम को ही सिद्ध करते हैं इसलिए भगतसिंह ने कहा था दुनिया के मजदूरो एक हो। इसलिए भगतसिंह ने कहा था कि किसान मजदूर और नौजवान की एकता होनी चाहिए भगतसिंह पर राष्ट्रवाद का नशा छाया हुआ था उनका रास्ता मार्क्स के रास्ते से निकल कर आता था एक अजीब तरह का राजनीतिक प्रयोग भारत की राजनीति में होने वाला था लेकिन भगतसिंह काल कवलित हो गए, असमय चले गए हमारे देश में तार्किकता, बहस, लोकतांत्रिक आजादी, जनप्रतिरोध, सरकारों के खिलाफ अराजक होकर खड़े हो जाने का अधिकार छिन रहा है हमारे देश में मूर्ख राजा हैं वे सत्ता पर लगातार बैठ रहे हैं, जिन्हें ठीक से हस्ताक्षर भी करना नहीं आता ऐसे लोग देश के राजनीतिक चेक पर हस्ताक्षर कर रहे हैं हमारे यहां "आई एम सॉरी" जैसी एक सर्विस आ गई है. आई.ए.एस. आई.पी.एस.  की नौकरशाही है उसमें अब भ्रष्ट अधिकारी इतने ज्यादा हैं कि अच्छे अधिकारी ढूंढ़ना मुश्किल है हमारे देश में निकम्मे साधुओं की जमात है, वे निकम्मे हैं लेकिन मलाई खाते हैं इस देश के मेहनतकश मजदूर के लिए अगर कुछ रुपयों के बढ़ने की बात होती है, सब उनसे लड़ने बैठ जाते हैं हमारे देश में असंगठित मजदूरों का बहुत बड़ा दायरा है, हम उनको संगठित करने की कोशिश नहीं करते, हमारे देश में पहले से ही सुरक्षित लोगों के अधिकारों की सुरक्षा के कानून बने हुए हैं लेकिन भारत की संसद ने आज तक नहीं सोचा कि भारत के किसानों के भी अधिकार होने चाहिए भारतीय किसान अधिनियम जैसा कोई अधिनियम नहीं है किसान की फसल का कितना पैसा उसको मिले वह कुछ भी तय नहीं है एक किसान अगर सौ रुपये के बराबर का उत्पाद करता है तो बाजार में उपभोक्ता को वह वस्तु हजार रुपये में मिलती है आठ-नौ सौ रुपये बिचौलिए और दलाली में खाए जाते हैं। उनको भी सरकारी संरक्षण प्राप्त होता है, और सरकार खुद भी दलाली ही करती है ऐसे किसानों की रक्षा के लिए भगतसिंह खड़े हुए थे
भगतसिंह समाजवाद और धर्म को अलग-अलग समझते थे विवेकानंद समाजवाद और धर्म को समायोजित करते थे विवेकानंद समझते थे कि हिन्दुस्तान की धार्मिक जनता को धर्म के आधार पर समाजवाद की घुट्टी अगर पिलायी जाए तो शायद ठीक से समझ में बात आएगी गांधीजी भी लगभग इसी रास्ते पर चलने की कोशिश करते थे लेकिन भगतसिंह भारत के पहले रेशनल थिंकर, पहले विचारशील व्यक्ति थे, जो धर्म के दायरे से बाहर थे
श्रीमती दुर्गादेवी वोहरा को अंग्रेजी जल्लादों से बचाने के लिए जब भगतसिंह अपने केश काटकर प्रथम श्रेणी के डब्बे में कलकत्ता तक की यात्रा करनी पड़ी तो लोगों ने उनकी कड़ी आलोचना की। उन्होंने कहा कि सिख होकर अपने केश कटा लिए आपने? हमारे यहां तो पांच चीजें रखनी पड़ती हैं हर सिख को उसमें केश भी आता है यह आपने क्या किया? कैसे सिख हैं आप! जो सज्जन सवाल पूछ रहे थे वे शायद धार्मिक व्यक्ति थे भगतसिंह ने एक धार्मिक व्यक्ति की तरह जवाब दिया "मेरे भाई तुम ठीक कहते हो, मैं सिख हूं, गुरु गोविंद सिंह ने कहा है कि अपने धर्म की रक्षा करने के लिए अपने शरीर का अंग-अंग कटवा दो मैंने केश कटवा दिए, अब मौका मिलेगा तो अपनी गरदन कटवा दूंगा।" यह तार्किक विचारशीलता भगतसिंह की है उस नए भारत में वे 1931 के पहले कह रहे थे जिसमें भारत  के गरीब आदमी, इंकलाब और आर्थिक बराबरी के लिए, समाजवाद को पाने के लिए, देश और चरित्र को बनाने के लिए, दुनिया में भारत का झंडा बुलंद करने के लिए धर्म जैसी चीज की हमको जरूरत नहीं होनी चाहिए
भगतसिंह ने शहादत दे दी, फकत इतना कहना भगतसिंह के कद को छोटा करना है जितनी उम्र में भगतसिंह कुर्बान हो गए, इससे कम उम्र में मदनलाल धींगरा और शायद करतार सिंह सराभा चले गए थे भगतसिंह ने तो स्वयं मृत्यु का वरण किया यदि वे पंजाब की असेंबली में बम नहीं फेंकते तो क्या होता? कांग्रेस के इतिहास को भगतसिंह का ऋणी होना पड़ेगा लाला लाजपत राय, बिपिनचंद्र पाल और बालगंगाधर तिलक ने कांग्रेस की अगुआई की थी, भगतसिंह लाला लाजपत राय के समर्थक और अनुयायी शुरू में थे
भूगोल और इतिहास से काटकर भगतसिंह के कद को एक बियाबान में नहीं देखा जा सकता जब लाला लाजपत राय की जलियावाला बाग की घटना के दौरान लाठियों से कुचले जाने की वजह से मृत्यु हो गई तो भगतसिंह ने केवल उस बात का बदला लेने के लिए एक सांकेतिक हिंसा की और सांडर्स की हत्या हुई भगतसिंह चाहते तो जी सकते थे, यहां वहां आजादी की अलख जगा सकते थे। बहुत से क्रांतिकारी भगतसिंह के साथी जिए ही लेकिन भगतसिंह ने सोचा कि यही वक्त है जब इतिहास की सलवटों पर शहादत की इस्तरी चलाई जा सकती है जिसमें वक्त के तेवर पढ़ने का मेधा  हो, ताकत हो, वही इतिहास पुरुष होता है
भगतसिंह ने कहा था जब तक भारत के नौजवान भारत के किसान के पास नहीं जाएंगे, गांव नहीं जाएंगे, उनके साथ पसीना बहाकर काम नहीं करेंगे तब तक भारत की आजादी का कोई मुकम्मिल अर्थ नहीं होगा मैं हताश तो नहीं हूं लेकिन निराश लोगों में से हूं, भारत के 18 वर्ष के नौजवान जो वोट देने का अधिकार रखते हैं उनको राजनीति की समझ नहीं है जब अस्सी-नब्बे वर्ष के लोग सत्ता की कुर्सी का मोह नहीं छोड़ सकते तो नौजवान को भारत की राजनीति से अलग करना मुनासिब नहीं है लेकिन राजनीति का मतलब कुर्सी नहीं है
हम एक अंतर्राष्ट्रीय साजिश का शिकार हैं हमको यही बताया जाता है कि डॉ. अम्बेडकर ने भारत के संविधान की रचना की भारत के स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों ने भारत के संविधान की रचना की संविधान की पोथी को बनाने वाली असेम्बली का इतिहास पढ़ें सेवानिवृत्त आई.सी.एस . अधिकारी, दीवान साहब और राय बहादुर और कई पश्चिमाभिमुख बुद्धिजीवियों ने मूल पाठ बनाया देशभक्तों ने उस पर बहस की, उस पर दस्तखत करके उसको पेश कर दिया संविधान की पोथी का अपमान नहीं होना चाहिए लेकिन जब हम रामायण, गीता, कुरान शरीफ, बाईबिल और गुरु ग्रंथ साहब पर बहस कर सकते हैं कि इनके सच्चे अर्थ क्या होने चाहिए तो हमको हिन्दुस्तान की उस पोथी की जिसकी वजह से सारा देश चल रहा है, आयतों को पढ़ने, समझने और उसके मर्म को बहस के केन्द्र में डालने का भी अधिकार मिलना चाहिए. यही भगतसिंह का रास्ता है
            बड़ी खुशनसीब रही होगी वह कोख और गर्व से चौडा हो गया होगा उस बाप का सीना जिस दिन देश की आजदी के खातिर उसका लाल फांसी चढ़ गया था। हॉं आज उसी माँ-बाप के लाल भगत सिंह का शहीद दिवस है। आज देश भगत सिंह की 81वीं शहादत वर्ष पर भावभीनी श्रद्धांजलि देने जा  रहा है, 23 मार्च 1931 को शहीदे-आज़म-भगतसिंह को राजगुरु तथा सुखदेव के साथ फाँसी दे दी गयी थी। भगत सिंह का जन्‍म 28 सितंबर 1907 में एक देश भक्‍त क्रान्तिकारी परिवार में हुआ था। सही कह गया कि "शेर के घर शेर ही जन्‍म लेता है।" उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये। इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया था। पंडित राम प्रसाद "बिस्मिल"  ने अपनी आत्म-कथा में जो-जो दिशा-निर्देश दिये थे, भगतसिंह ने उनका अक्षरश: पालन किया। उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबन्दी समझा जाये तथा फाँसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये। फाँसी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था -

"उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है  

हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है

दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख का क्या ग़िला करें।

सारा जहाँ अदू सही, आओ! मुक़ाबला करें।।"




           इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्र शेखर "आज़ाद" से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।
हे देश के सच्चे सपूत आपको शत-शत नमन...
जय हिंद...


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Thanks and Regards
Atul Kumar
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