Sunday, November 13, 2011

यादों का एक सफ़र....

               यादें जिंदगी के सफ़र का वो खुशनुमा मोड़ होती हैं, जो हमें  बताती हैं कि हम कल क्या थे, आज क्या हैं. यादों के इस सफ़र में ढेरों खुशियाँ होती हैं तो ढेरों गम भी...... लेकिन फिर भी यादें होती बहुत प्यारी हैं . इन्ही यादों का एक मंजर, एक वाकया जो एक सफ़र के दौरान हुआ वो मैं बताने/लिखने कि कोशिश कर रहा हूँ....
               ये खुबसूरत वाकया है पहली बार पैसेंजर ट्रेन से ०८/०४/२००७ को "बाराबंकी से राम जन्म भूमि यानी अयोध्या तक कि दूरी जो लगभग 107 किलोमीटर की है" के सफ़र का... इस सफ़र के दौरान मिलन हुआ ज़मीन से अपने आपको ऊपर उठाते हुए,  प्रकृति को एक नये रंग देने और उसके पोषण के लिए अपनी दैनिक दिनचर्या के लिए और अपने कर्तव्यों को अंजाम देने के लिए तैयार सूरज से...... जिससे मुलाकात तो प्रत्येक दिन होती थी लेकिन आज इसके साथ सफ़र करते हुए एक न्य एहसास और सुखद अनुभूति कि प्राप्ति हो रही थी...
               इन एहसासों में अनेकों सवाल हैं तो उन सवालों के बदले उनसे कहीं ज्यादा ऐसे जवाब जिनके प्रति सवाल करना एक बेवकूफी सी लगती है.... प्रकृति के इस नए रूप से आज पहली बार रूबरू होने का मौका मिला. इसको देखने के पश्चात् जो एहसास हुए उन्हें बयाँ कर पाना मेरे लिए मुश्किल ही नहीं वरन नामुमकिन सा लग रहा था... फिर भी मैंने ब्याने सफ़र कि एक छोटी सी कोशिश कर रहा हूँ.....
               इस सफ़र के दौरान हमने अपनी सरज़मी को सोने की चादर से लिपटा हुआ पाया... जिसे सूरज की रौशनी ने और भी ज्यादा चमकीला कर रखा है, कंही पेड़ों की कतारें साथ में दौड़ लगा रही थीं... तो कहीं पेड़ों के झुण्ड एक साथ होकर हमे पकड़ने की कोशिश कर रहे थे.... लेकिन गाड़ी की रफ़्तार के आगे इनकी दौड़ बहुत धीमी सी महसूस हो रही थी.... कहीं उसर ज़मीन अपने आपको कोसती और अपने सीने में ग़मों का सागर छिपाए हुए हमसे रूबरू हो रही थी तो कहीं तो कहीं लहलहाते खेत ये बयाँ कर रहे थे कि, ये ज़मीन दुखी नहीं है और न उसर रूपी कलंक ने इसे कलंकित कर रखा है.....
               आपके जहन में एक बात बार-बार कौंध रही होगी कि ये सफ़र कर रहा है या फिर किसी खेत-खलिहान के बीच दौड़ लगाकर कोई कहानी करने कि कोशिश कर रहा है, इसके सफ़र में इंसानों का कोई जिक्र ही नहीं है..... मेरा अपना ये सोचना है कि आज के दौर में इंसान है ही नहीं. देखने में हमे जो इन्सान कि शक्ल लिए दिखाई देते हैं दरअसल ये बन चुके हैं काम करने कि एक मशीन, अपना मतलब सीधा करने कि एक मशीन, राजनीति का एक अध्याय और इंसानियत को शर्मसार करने वाले हैवान.....
               आप ये सोच कर परेशां बिलकुल न हों कि दूसरों पर ऊँगली उठाने वाले और इतने बड़े-बड़े लांछन लगाने वाले इन्सान का गिरेबां कितना साफ़ है? मेरा जवाब जवाब बड़ा सीधा सा है बिलकुल भी नहीं.... क्योंकि जब हम अपनी जिंदगी को अच्छे तरीके से नहीं जी पा रहे हैं, अपने मतलब को दूसरों कि सहायता के लिए नहीं छोड़ प् रहे हैं, जब हम किसी जरुरत मंद कि मदद नहीं कर सकते हैं और जब हम इंसानियत के किसी काम को उसके अंजाम तक नहीं पहुंचा सकते तो हम इंसान कहाँ से रह गए? खैर छोड़ते हैं इस इंसान और इंसानियत को वापस आते हैं अपने सफ़र-ऐ--राम जन्म भूमि पर मै अपने गंतव्य तक पहुँच चूका हूँ..... ये सिर्फ एक सफ़र औए सफ़र के दौरान मुझे जो महसूस हुआ उनको आप तक पहुँचाने कि कोशिश की है........

अतुल कुमार
०९४५४०७१५०१, ०९५५४४६८५०२  

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