Saturday, May 07, 2011

माँ और मदर्स डे

              "माँ" एक ऐसा शब्द जो हमे हर मुसीबतों से बचाने की रखता है हिम्मत.... और जिंदगी में हम हो कामयाब ये होती है इस माँ शब्द की दुआ.... "माँ" जो अपने आँचल में समेट लेती है हमारी सारी परेशानियों को... अपनी रातों की नींद को मिटा कर दिन का सुकून और आराम को भुला कर, पल-पल देती है हमे नई जिंदगी... पर सवाल यह है की हमने उसे क्या दिया? साल भर (365) दिन से १ दिन का समय..... मदर्स डे !!!!!!!!!!! क्या यह काफी है?
             आधुनिक दौर में माँ शब्द को भले ही माम, मम्मी आदि नामों में परिवर्तित कर दिया गया हो......... पर इस शब्द ने नहीं खोई है अपनी पहचान, अपनी जिम्मेदारियां, अपने कर्त्तव्य... आज माँ अपनी पूर्ण रूपेण इस जिम्मेदारी को इस माँ शब्द की गरिमा को बनाये रखने में तत्पर्य है.... आज भी माँ का अस्तित्व और प्यार वही है.......
               हमने देखा है की दुःख और कष्टों के पल हों या खुशी का पल "माँ" ही निकलता है हमारे मुँह से हमारी आत्मा की आवाज से..... माँ किसी भी दशा में हम बच्चों का बुरा नहीं सोचती.... "माँ" इस शब्द का उच्चारण करते ही हृदय आनंद से गदगद और प्रफुल्लित हो जाता है... "माँ" की  महिमा  अवर्णनीय है...... माँ का प्रेम निःस्वार्थ होता है.... हमारा पुरुष समाज माँ की सेवा से कभी भी उऋण नहीं हो सकता....
           नारी "माँ" के रूप में रक्षक, मित्र और गुरु के रूप में हमारे लिए शुभ कार्यों की प्रेरक है.... भारतीय जन-मानस में मातृरूपा नारी को सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित किया गया है... समय के साथ प्रत्येक रिश्ते में एक ठहराव आ ही जाता है...... जो हमे एहसास करता है अपने और पराये का... ये दुनिया तो धन-दौलत वालों की है..... कहने का मतलब बस इतना है की अगर हमारे पास धन-दौलत है तो सारी दुनिया अपनी है, और यदि हम निर्धन है तो इस मोड़ पर सिर्फ और सिर्फ "माँ" ही साथ निभाती है... बाकी कोई साथ क्यूँ निभाएगा?
             हमार वजूद अगर कर्जदार है तो सिर्फ "माँ" का...... और हमने उसे इसके बदले अपनी जिंदगी के ३६५ दिन में से दिया है १ दिन....... क्या यही है हमारी नैतिक जिम्मेदारी? अगर यही सोच "माँ" की होती तो वह भी १ दिन मना लिया करती "चिल्ड्रेन डे" और मुँह मोड़ लेती अपनी जिम्मेदारियों से....... तब क्या होता हमारा और हमारे वजूद का? क्या यह सोचने की जरुरत है है.........

2 comments:

  1. bahut shaandar is lekh ne to woh baat kah diya jo aaj ke is yug ke bahut kam hi yuva is baare sochte honge...aapke blog ki sabse bari khubi yeh hai ki aap hamesh un subject par likhte hain jin par samaaj kavi dhyaan nahin deta hai..meri request hai aapse pleez aise social issue par apne rai aur blog likha kariye...

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  2. Zia Sahab Thank You.......
    Koshish yahi rahti hai par hakikat aaj ke is daur ki kuch aur hi hai.... Na log sach sunna chahte hain aur na hi sach bolna chahte hain....... Sab hamesha Bharat sarkar ki tarah Dohri neeti par chalne wale hain...... chahe wah kitna hi bda aadarsh waadi kyun na ho..... Ab tak bahut saare example aapko bhi mil gaye honge....... Jo jindagi ne dikhaye honge.... Aaj ke is daur me Guru apni garima ko tyag kar shishya ke saath rang-raliyan manate hai.... jise tez aawaj me bolne ki parmission nahi hoti hai wah round chair par baith kar hukum chalate hain..... Kya-kya bataun.... ek ladki ki izzat uska Ghana (Sab Kuch) hota hai wah chand jaruraton ke liye use bhi kisi ke saath batne se nahi peeche hatti hai... woh chahe Guru ho ya bade bhai ke saman koi aur....

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