Tuesday, April 19, 2011

Hindi Patrakarita aur Patrakarita ka Itihas

हिन्दी पत्रकारिता और पत्रकारिता का इतिहास
१. प्रस्तावना
२. हिन्दी पत्रकारिता: परिचय
३. साहित्य की परिभाषा
४. भारतीय पत्रकारिता में हिंदी पत्रकारिता का समावेश
५. हिन्दी पत्रकारिता:
      १ भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता का आरम्भ और हिन्दी पत्रकारिता.
     २ हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण.
     ३ हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग : भारतेंदु युग
     ४ भारतेंदु के बाद
     ५ तीसरा चरण : बीसवीं शताब्दी के प्रथम बीस वर्ष
     ६ आधुनिक युग
६. पत्रकारिता को युगों की अवधि में:
      १. बालमुकुंद गुप्त जी द्वारा
      २. डॉ. रामरतन भटनागर जी के शोधनुसार
      ३. डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र जी का अध्ययन
      ४. डॉ. रामचन्द्र तिवारी जी के शोधनुसार
७. हिन्दी पत्रकारिता के भविष्य की दिशा:
निष्कर्ष.
 १. प्रस्तावना
आज जब हम हिन्दी पत्रकारिता की बात करते हैं तो यह जानकर आश्चर्य होता है कि शुरूआती दौर में यह ध्वज उन क्षेत्रों में लहराया गया था जिन्हें आज अहिन्दी भाषी कहा जाता है। कोलकाता का विश्वामित्र ऐसा पहला ध्वज वाहक था। उत्तर प्रदेश, बिहार और उन दिनों के सी.पी. बरार में भी अनेक हिन्दी अखबारों की शुरूआत हुई थी। लाहौर तो हिन्दी अखबारों का एक प्रकार से गढ बन गया था। इसका एक कारण शायद आर्यसमाज का प्रभाव भी रहा होगा। परंतु इन सभी अखबारों का कार्य क्षेत्र सीमित था या तो अपने प्रदेश तक या फिर कुछ जिलों तक। अंग्रेजी में जो अखबार उन दिनों निकलनी शुरू हुई उनको सरकारी इमदाद प्राप्त होती थी। वैसे भी यह अखबारें शासकों की भाषा में निकलती थीं इसलिए इनका रूतबा और रूआब जरूरत से ज्यादा था। चैन्नई का हिन्दू, कोलकाता का स्टेटसमैन मुम्बई का टाईम्स आफ इंडिया, लखनऊ का नेशनल हेराल्ड और पायोनियर, दिल्ली का हिन्दुस्तान टाईम्स और बाद में इंडियन एक्सप्रेस भी। ये सभी अखबार प्रभाव की दृष्टि से तो शायद इतने महत्वपूर्ण नहीं थे परंतु शासको की भाषा में होने के कारण इन अखबारों को राष्ट्रीय प्रेस का रूतबा प्रदान किया गया। जाहिर है यदि अंग्रेजी भाषा के अखबार राष्ट्रीय हैं तो हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के अखबार क्षेत्रीय ही कहलाएंगे। प्रभाव तो अंग्रजी अखबारों का भी कुछ कुछ क्षेत्रों में था परंतु आखिर अंग्रेजी भाषा का पूरे हिन्दुस्तान में नाम लेने के लिए भी अपना कोई क्षेत्र विशेष तो था नहीं। इसलिए अंग्रेजी अखबार छोटे होते हुए भी राष्ट्रीय कहलाए और हिन्दी के अखबार बड़े होते हुए भी क्षेत्रीयता का सुख-दुख भोगते रहे।
परंतु पिछले दो दशकों में ही हिन्दी अखबारों ने प्रसार और प्रभाव के क्षेत्र में जो छलांगे लगाई हैं वह आश्चर्यचकित कर देने वाली हैं। जालंधर से प्रारंभ हुई हिन्दी अखबार पंजाब केसरी पूरे उत्तरी भारत में अखबार न रहकर एक आंदोलन बन गई है। जालंधर के बाद पंजाब केसरी हरियाणा से छपने लगी उसके बाद धर्मशाला से और फिर दिल्ली से। जहां तक पंजाब केसरी की मार का प्रश्न है उसने सीमांत राजस्थान और उत्तर प्रदेश को भी अपने शिकंजे में लिया है। दस लाख से भी ज्यादा संख्या में छपने वाला पंजाब केसरी आज पूरे उत्तरी भारत का प्रतिनिधि बनने की स्थिति में आ गया है ।
जागरण तभी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर से छपता था और जाहिर है कि वह उसी में बिकता भी था
गाँवों के देश भारत में, जहाँ लगभग 80% आबादी ग्रामीण इलाक़ों में रहती है, देश की बहुसंख्यक आम जनता को खुशहाल और शक्तिसंपन्न बनाने में पत्रकारिता की निर्णायक भूमिका हो सकती है। लेकिन विडंबना की बात यह है कि अभी तक पत्रकारिता का मुख्य फोकस सत्ता की उठापठक वाली राजनीति और कारोबार जगत की ऐसी हलचलों की ओर रहा है, जिसका आम जनता के जीवन-स्तर में बेहतरी लाने से कोई वास्तविक सरोकार नहीं होता। पत्रकारिता अभी तक मुख्य रूप से महानगरों और सत्ता के गलियारों के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। ग्रामीण क्षेत्रों की ख़बरें समाचार माध्यमों में तभी स्थान पाती हैं जब किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा या व्यापक हिंसा के कारण बहुत से लोगों की जानें चली जाती हैं। ऐसे में कुछ दिनों के लिए राष्ट्रीय कहे जाने वाले समाचार पत्रों और मीडिया जगत की मानो नींद खुलती है और उन्हें ग्रामीण जनता की सुध आती जान पड़ती है। खासकर बड़े राजनेताओं के दौरों की कवरेज के दौरान ही ग्रामीण क्षेत्रों की ख़बरों को प्रमुखता से स्थान मिल पाता है। फिर मामला पहले की तरह ठंडा पड़ जाता है और किसी को यह सुनिश्चित करने की जरूरत नहीं होती कि ग्रामीण जनता की समस्याओं को स्थायी रूप से दूर करने और उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए किए गए वायदों को कब, कैसे और कौन पूरा करेगा। सूचना में शक्ति होती हैं। हाल ही में सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के जरिए नागरिकों को सूचना के अधिकार से लैस करके उन्हें शक्ति-संपन्न बनाने का प्रयास किया गया है। लेकिन जनता इस अधिकार का व्यापक और वास्तविक लाभ पत्रकारिता के माध्यम से ही उठा सकती है, क्योंकि आम जनता अपने दैनिक जीवन के संघर्षों और रोजी-रोटी का जुगाड़ करने में ही इस क़दर उलझी रहती है कि उसे संविधान और कानून द्वारा प्रदत्त अधिकारों का लाभ उठा सकने के उपायों को अमल में लाने की चेष्टा करने का अवसर ही नहीं मिल पाता। ग्रामीण क्षेत्रों में अशिक्षा, गरीबी और परिवहन व्यवस्था की बदहाली की वजह से समाचार पत्र-पत्रिकाओं का लाभ सुदूर गाँव-देहात की जनता नहीं उठा पाती। बिजली और केबल कनेक्शन के अभाव में टेलीविज़न भी ग्रामीण क्षेत्रों तक नहीं पहुँच पाता। ऐसे में रेडियो ही एक ऐसा सशक्त माध्यम है जो सुगमता से सुदूर गाँवों-देहातों में रहने वाले जन-जन तक बिना किसी बाधा के पहुँचता है। रेडियो आम जनता का माध्यम है और इसकी पहुँच हर जगह है, इसलिए ग्रामीण पत्रकारिता के ध्वजवाहक की भूमिका रेडियो को ही निभानी पड़ेगी। रेडियो के माध्यम से ग्रामीण पत्रकारिता को नई बुलंदियों तक पहुँचाया जा सकता है और पत्रकारिता के क्षेत्र में नए-नए आयाम खोले जा सकते हैं। इसके लिए रेडियो को अपना मिशन महात्मा गाँधी के ग्राम स्वराज्य के स्वप्न को साकार करने को बनाना पड़ेगा और उसको ध्यान में रखते हुए अपने कार्यक्रमों के स्वरूप और सामग्री में अनुकूल परिवर्तन करने होंगे। निश्चित रूप से इस अभियान में रेडियो की भूमिका केवल एक उत्प्रेरक की ही होगी। रेडियो एवं अन्य जनसंचार माध्यम सूचना, ज्ञान और मनोरंजन के माध्यम से जनचेतना को जगाने और सक्रिय करने का ही काम कर सकते हैं। लेकिन वास्तविक सक्रियता तो ग्राम पंचायतों और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले पढ़े-लिखे नौजवानों और विद्यार्थियों को दिखानी होगी। इसके लिए रेडियो को अपने कार्यक्रमों में दोतरफा संवाद को अधिक से अधिक बढ़ाना होगा ताकि ग्रामीण इलाक़ों की जनता पत्रों और टेलीफोन के माध्यम से अपनी बात, अपनी समस्या, अपने सुझाव और अपनी शिकायतें विशेषज्ञों तथा सरकार एवं जन-प्रतिनिधियों तक पहुँचा सके। खासकर खेती-बाड़ी, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार से जुड़े बहुत-से सवाल, बहुत सारी परेशानियाँ ग्रामीण लोगों के पास होती हैं, जिनका संबंधित क्षेत्रों के विशेषज्ञ रेडियो के माध्यम से आसानी से समाधान कर सकते हैं। रेडियो को “इंटरेक्टिव” बनाकर ग्रामीण पत्रकारिता के क्षेत्र में वे मुकाम हासिल किए जा सकते हैं जिसे दिल्ली और मुम्बई से संचालित होने वाले टी.वी. चैनल और राजधानियों तथा महानगरों से निकलने वाले मुख्यधारा के अख़बार और नामी समाचार पत्रिकाएँ अभी तक हासिल नहीं कर पायी हैं।
टी.वी. चैनलों और बड़े अख़बारों की सीमा यह है कि वे ग्रामीण क्षेत्रों में अपने संवाददाताओं और छायाकारों को स्थायी रूप से तैनात नहीं कर पाते। कैरियर की दृष्टि से कोई सुप्रशिक्षित पत्रकार ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र बनाने के लिए ग्रामीण इलाक़ों में लंबे समय तक कार्य करने के लिए तैयार नहीं होता। कुल मिलाकर, ग्रामीण पत्रकारिता की जो भी झलक विभिन्न समाचार माध्यमों में आज मिल पाती है, उसका श्रेय अधिकांशत: जिला मुख्यालयों में रहकर अंशकालिक रूप से काम करने वाले अप्रशिक्षित पत्रकारों को जाता है, जिन्हें अपनी मेहनत के बदले में समुचित पारिश्रमिक तक नहीं मिल पाता। इसलिए आवश्यक यह है कि नई ऊर्जा से लैस प्रतिभावान युवा पत्रकार अच्छे संसाधनों से प्रशिक्षण हासिल करने के बाद ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र बनाने के लिए उत्साह से आगे आएँ। इस क्षेत्र में काम करने और कैरियर बनाने की दृष्टि से भी अपार संभावनाएँ हैं। यह उनका नैतिक दायित्व भी बनता हैं।
आखिर देश की 80 प्रतिशत जनता जिनके बलबूते पर हमारे यहाँ सरकारें बनती हैं, जिनके नाम पर सारी राजनीति की जाती हैं, जो देश की अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक योगदान करते हैं, उन्हें पत्रकारिता के मुख्य फोकस में लाया ही जाना चाहिए। मीडिया को नेताओं, अभिनेताओं और बड़े खिलाड़ियों के पीछे भागने की बजाय उस आम जनता की तरफ रुख़ करना चाहिए, जो गाँवों में रहती है, जिनके दम पर यह देश और उसकी सारी व्यवस्था चलती है। पत्रकारिता जनता और सरकार के बीच, समस्या और समाधान के बीच, व्यक्ति और समाज के बीच, गाँव और शहर की बीच, देश और दुनिया के बीच, उपभोक्ता और बाजार के बीच सेतु का काम करती है। यदि यह अपनी भूमिका सही मायने में निभाए तो हमारे देश की तस्वीर वास्तव में बदल सकती है।
सरकार जनता के हितों के लिए तमाम कार्यक्रम बनाती है; नीतियाँ तैयार करती है; कानून बनाती है; योजनाएँ शुरू करती है; सड़क, बिजली, स्कूल, अस्पताल, सामुदायिक भवन आदि जैसी मूलभूत अवसंरचनाओं के विकास के लिए फंड उपलब्ध कराती है, लेकिन उनका लाभ कैसे उठाना है, उसकी जानकारी ग्रामीण जनता को नहीं होती। इसलिए प्रशासन को लापरवाही और भ्रष्टाचार में लिप्त होने का मौका मिल जाता है। जन-प्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद जनता के प्रति बेखबर हो जाते हैं और अपने किए हुए वायदे जान-बूझकर भूल जाते हैं। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नई-नई ख़ोजें होती रहती हैं; शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में नए-नए द्वार खुलते रहते हैं; स्वास्थ्य, कृषि और ग्रामीण उद्योग के क्षेत्र की समस्याओं का समाधान निकलता है, जीवन में प्रगति करने की नई संभावनाओं का पता चलता है। इन नई जानकारियों को ग्रामीण जनता तक पहुँचाने के लिए तथा लगातार काम करने के लिए उन पर दबाव बढ़ाने, प्रशासन के निकम्मेपन और भ्रष्टाचार को उजागर करने, जनता की सामूहिक चेतना को जगाने, उन्हें उनके अधिकारों और कर्त्तव्यों का बोध कराने के लिए पत्रकारिता को ही मुस्तैदी और निर्भीकता से आगे आना होगा। किसी प्राकृतिक आपदा की आशंका के प्रति समय रहते जनता को सावधान करने, उन्हें बचाव के उपायों की जानकारी देने और आपदा एवं महामारी से निपटने के लिए आवश्यक सूचना और जानकारी पहुँचाने में जनसंचार माध्यमों, खासकर रेडियो की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।
पत्रकारिता आम तौर पर नकारात्मक विधा मानी जाती है, जिसकी नज़र हमेशा नकारात्मक पहलुओं पर रहती है, लेकिन ग्रामीण पत्रकारिता सकारात्मक और स्वस्थ पत्रकारिता का क्षेत्र है। भूमण्डलीकरण और सूचना-क्रांति ने जहाँ पूरे विश्व को एक गाँव के रूप में तबदील कर दिया है, वहीं ग्रामीण पत्रकारिता गाँवों को वैश्विक परिदृश्य पर स्थापित कर सकती है। गाँवों में हमारी प्राचीन संस्कृति, पारंपरिक ज्ञान की विरासत, कला और शिल्प की निपुण कारीगरी आज भी जीवित है, उसे ग्रामीण पत्रकारिता राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर ला सकती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ यदि मीडिया के माध्यम से धीरे-धीरे ग्रामीण उपभोक्ताओं में अपनी पैठ जमाने का प्रयास कर रही हैं तो ग्रामीण पत्रकारिता के माध्यम से गाँवों की हस्तकला के लिए बाजार और रोजगार भी जुटाया जा सकता है। ग्रामीण किसानों, घरेलू महिलाओं और छात्रों के लिए बहुत-से उपयोगी कार्यक्रम भी शुरू किए जा सकते हैं जो उनकी शिक्षा और रोजगार को आगे बढ़ाने का माध्यम बन सकते हैं। इसके लिए ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी सृजनकारी भूमिका को पहचानने की जरूरत है। अपनी अनन्त संभावनाओं का विकास करने एवं नए-नए आयामों को खोलने के लिए ग्रामीण पत्रकारिता को इस समय प्रयोगों और चुनौतियों के दौर से गुजरना होगा।


२. हिन्दी पत्रकारिता: परिचय
आज जब हम हिन्दी पत्रकारिता की बात करते हैं तो यह जानकर आश्चर्य होता है कि शुरूआती दौर में यह ध्वज उन क्षेत्रों में लहराया गया था जिन्हें आज अहिन्दी भाषी कहा जाता है। कोलकाता का विश्वामित्र ऐसा पहला ध्वज वाहक था। उत्तर प्रदेश, बिहार और उन दिनों के सी.पी. बरार में भी अनेक हिन्दी अखबारों की शुरूआत हुई थी। लाहौर तो हिन्दी अखबारों का एक प्रकार से गढ बन गया था। इसका एक कारण शायद आर्यसमाज का प्रभाव भी रहा होगा। परंतु इन सभी अखबारों का कार्य क्षेत्र सीमित था या तो अपने प्रदेश तक या फिर कुछ जिलों तक। अंग्रेजी में जो अखबार उन दिनों निकलनी शुरू हुई उनको सरकारी इमदाद प्राप्त होती थी। वैसे भी यह अखबारें शासकों की भाषा में निकलती थीं इसलिए इनका रूतबा और रूआब जरूरत से ज्यादा था। चैन्नई का हिन्दू, कोलकाता का स्टेटसमैन मुम्बई का टाईम्स आफ इंडिया, लखनऊ का नेशनल हेराल्ड और पायोनियर, दिल्ली का हिन्दुस्तान टाईम्स और बाद में इंडियन एक्सप्रेस भी। ये सभी अखबार प्रभाव की दृष्टि से तो शायद इतने महत्वपूर्ण नहीं थे परंतु शासको की भाषा में होने के कारण इन अखबारों को राष्ट्रीय प्रेस का रूतबा प्रदान किया गया। जाहिर है यदि अंग्रेजी भाषा के अखबार राष्ट्रीय हैं तो हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के अखबार क्षेत्रीय ही कहलाएंगे। प्रभाव तो अंग्रजी अखबारों का भी कुछ कुछ क्षेत्रों में था परंतु आखिर अंग्रेजी भाषा का पूरे हिन्दुस्तान में नाम लेने के लिए भी अपना कोई क्षेत्र विशेष तो था नहीं। इसलिए अंग्रेजी अखबार छोटे होते हुए भी राष्ट्रीय कहलाए और हिन्दी के अखबार बड़े होते हुए भी क्षेत्रीयता का सुख-दुख भोगते रहे।
परंतु पिछले दो दशकों में ही हिन्दी अखबारों ने प्रसार और प्रभाव के क्षेत्र में जो छलांगे लगाई हैं वह आश्चर्यचकित कर देने वाली हैं। जालंधर से प्रारंभ हुई हिन्दी अखबार पंजाब केसरी पूरे उत्तरी भारत में अखबार न रहकर एक आंदोलन बन गई है। जालंधर के बाद पंजाब केसरी हरियाणा से छपने लगी उसके बाद धर्मशाला से और फिर दिल्ली से। जहां तक पंजाब केसरी की मार का प्रश्न है उसने सीमांत राजस्थान और उत्तर प्रदेश को भी अपने शिकंजे में लिया है। दस लाख से भी ज्यादा संख्या में छपने वाला पंजाब केसरी आज पूरे उत्तरी भारत का प्रतिनिधि बनने की स्थिति में आ गया है ।
जागरण तभी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर से छपता था और जाहिर है कि वह उसी में बिकता भी था परंतु पिछले 20 सालों में जागरण सही अर्थो में देश का राष्ट्रीय अखबार बनने की स्थिति में आ गया है। इसके अनेकों संस्करण दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, बिहार झारखंड, पंजाब, जम्मू कश्मीर, और हिमाचल से प्रकाशित होते हैं। यहां तक कि जागरण ने सिलीगुडी से भी अपना संस्करण प्रारंभ कर उत्तरी बंगाल, दार्जिलिंग, कालेबुंग और सिक्किम तक में अपनी पैठ बनाई है।
अमर उजाला जो किसी वक्त उजाला से टूटा था, उसने पंजाब तक में अपनी पैठ बनाई । दैनिक भास्कर की कहानी पिछले कुछ सालों की कहानी है। पूरे उत्तरी और पश्चिमी भारत में अपनी जगह बनाता हुआ भास्कर गुजरात तक पहुंचा है। भास्कर ने एक नया प्रयोग हिन्दी भाषा के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशन शुरू कर किया है। भास्कर के गुजराती संस्करण ने तो अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। दैनिक भास्कर ने महाराष्ट्र की दूसरी राजधानी नागपुर से अपना संस्करण प्रारंभ करके वहां के मराठी भाषा के समाचार पत्रों को भी बिक्री में मात दे दी है। एक ऐसा ही प्रयोग जयपुर से प्रकाशित राजस्थान पत्रिका का कहा जा सकता है, पंजाब से पंजाब केसरी का प्रयोग और राजस्थान से राजस्थान पत्रिका का प्रयोग भारतीय भाषाओं की पत्रिकारिता में अपने समय का अभूतपूर्व प्रयोग है। राजस्थान पत्रिका राजस्थान के प्रमुख नगरों से एक साथ अपने संस्करण प्रकाशित करती है। लेकिन पिछले दिनों उन्होंने चेन्नई संस्करण प्रकाशित करके दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रयोग को लेकर चले आ रहे मिथको को तोड़ा है। पत्रिका अहमदाबाद सूरत कोलकाता, हुबली और बैंगलूरू से भी अपने संस्करण प्रकाशित करती है और यह सभी के सभी हिंदी भाषी क्षेत्र है। इंदौर से प्रकाशित नई दुनिया मध्य भारत की सबसे बड़ा अखबार है जिसके संस्करण् अनेक हिंदी भाषी नगरों से प्रकाशित होते हैं। यहां एक और तथ्य की ओर संकेत करना उचित रहेगा कि अहिंदी भाषी क्षेत्रों में जिन अखबारों का सर्वाधिक प्रचलन है वे अंग्रेजी भाषा के नहीं बल्कि वहां की स्थानीय भाषा के अखबार हैं। मलयालम भाषा में प्रकाशित मलयालम मनोरमा के आगे अंग्रेजी के सब अखबार बौने पड़ रहे हैं। तमिलनाडु में तांथी, उडिया का समाज, गुजराती का दिव्यभास्कर, गुजरात समाचार, संदेश, पंजाबी में अजीत, बंगला के आनंद बाजार पत्रिका और वर्तमान अंग्रेजी अखबार के भविष्य को चुनौती दे रहे हैं। यहां एक और बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, झारखंड इत्यादि हिन्दी भाषी राज्यों में अंग्रेजी अखबारों की खपत हिंदी अखबारों के मुकाबले दयनीय स्थिति में है।


३. साहित्य की परिभाषा:
साहित्य की परिभाषा और परिधि में आने लायक पत्रकारीय लेखन को हासिल करने के लिए हमें क्या करना होगा ? चिरंजीवी साहित्य लिखने का अधिकार तो गिने-चुने लोगों को है । रस्किन जिसे  कुछ कमतर आँकते हुए  ‘सुवाच्य लेखन’ की कोटि के रूप में परिभाषित करते हैं उसके अन्तर्गत हमारा पत्रकारीय लेखन कैसे आ सकता है ? मैं इसकी चर्चा करना चाहता हूँ । सुवाच्य लेखन की कोटि में आने की जरूरी शर्त है कि वह लेखन बोधप्रद हो , आनन्दप्रद हो तथा सामान्य तौर पर लोक हितकारी हो : उसके अंग तथा उपांग लोकहित की परम दृष्टि से तैयार किए गये हों । आधुनिक समाचारपत्र औद्योगिक कारखानों की भाँति पश्चिम की पैदाइश हैं । हमारे देश के कारखाने जैसे पश्चिम के कारखानों के प्रारम्भिक काल का अनुकरण कर रहे हैं , उसी प्रकार हमारे देशी भाषाओं के अखबार देशी अंग्रेजी अखबारों के ब्लॉटिंग पेपर ( सोख़्ता ) जैसे हैं तथा हमारे अंग्रेजी अखबार ज्यादातर पश्चात्य पत्रों का अनुकरण हैं । अनुकरण अच्छे और सबल हों तब कोई अड़चन नहीं होती, क्योंकि जिस कला को सीखा ही है दूसरों से , उसमें अनुकरण तो अनिवार्य होगा । हमारे अखबारों में  मौलिकता हो अथवा अनुकरण, यदि वे जनहितसाधक हो जाँएं तो भी काफ़ी है, ऐसा मुझे लगता है । जैसे यन्त्रों का सदुपयोग और दुरपयोग दोनो है , वैसे ही अखबारों के भी सदुपयोग और दुरपयोग हैं ,कारण अखबार यन्त्र की भाँति एक महाशक्ति हैं । पत्रकारिता आम तौर पर नकारात्मक विधा मानी जाती है, जिसकी नज़र हमेशा नकारात्मक पहलुओं पर रहती है, लेकिन ग्रामीण पत्रकारिता सकारात्मक और स्वस्थ पत्रकारिता का क्षेत्र है। भूमण्डलीकरण और सूचना-क्रांति ने जहाँ पूरे विश्व को एक गाँव के रूप में तबदील कर दिया है, वहीं ग्रामीण पत्रकारिता गाँवों को वैश्विक परिदृश्य पर स्थापित कर सकती है। गाँवों में हमारी प्राचीन संस्कृति, पारंपरिक ज्ञान की विरासत, कला और शिल्प की निपुण कारीगरी आज भी जीवित है, उसे ग्रामीण पत्रकारिता राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर ला सकती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ यदि मीडिया के माध्यम से धीरे-धीरे ग्रामीण उपभोक्ताओं में अपनी पैठ जमाने का प्रयास कर रही हैं तो ग्रामीण पत्रकारिता के माध्यम से गाँवों की हस्तकला के लिए बाजार और रोजगार भी जुटाया जा सकता है। ग्रामीण किसानों, घरेलू महिलाओं और छात्रों के लिए बहुत-से उपयोगी कार्यक्रम भी शुरू किए जा सकते हैं जो उनकी शिक्षा और रोजगार को आगे बढ़ाने का माध्यम बन सकते हैं। इसके लिए ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी सृजनकारी भूमिका को पहचानने की जरूरत है। लॉर्ड रोज़बरी ने अखबारों की उपमा नियाग्रा के प्रपात से की है तथा इस उपमा की जानकारी के बिना गांधीजीने स्वतंत्र रूप से कहा था : ” अखबार में भारी ताकत है । परन्तु जैसे निरंकुश जल-प्रपात गाँव के गाँव डुबो देता है,फसलें नष्ट कर देता है , वैसे ही निरंकुश कलम का प्रपात भी नाश करता है । यह अंकुश यदि बाहर से थोपा गया हो तब वह निरंकुशता से भी जहरीला हो जाता है ।भीतरी अंकुश ही लाभदायी हो सकता है । यदि यह विचार-क्रम सच होता तब दुनिया के कितने अख़बार इस कसौटी पर खरे उतरते ? और जो बेकार हैं ,उन्हें बन्द कौन करेगा ? कौन किसे बेकार मानेगा ? काम के और बेकाम दोनों तरह के अखबार साथ साथ चलते रहेंगे । मनुष्य उनमें से खुद की पसन्दगी कर ले । “
इस प्रकार समाचारपत्र दुधारी तलवार जैसे हो सकते हैं क्योंकि उनके दो पक्ष हैं । अख़बार धन्धा बन सकते हैं ,ऐसा हुआ भी है,यह हम जानते हैं । दूसरी तरफ़ अख़बार नगर पालिका की तरह, जल -कल विभाग की तरह, डाक विभाग की तरह लोकसेवा का अमूल्य साधन बन सकते हैं । जब अख़बार कमाई का साधनमात्र बनता है तब बन्टाधार हो जाता है, जब अपना खर्च किसी तरह निकालने के पश्चात पत्रकार अखबार को सेवा का साधन बना लेता है तब वह लोकजीवन का आवश्यक अंग बन जाता है।


४. भारतीय पत्रकारिता में हिंदी पत्रकारिता का समावेश:

अहिंदी भाषी क्षेत्रों की राजधानियों यथा गुवाहाटी भुवनेश्वर, अहमदाबाद, गांतोक इत्यादि में अंग्रेजी भाषा की खपत गिने चुने वर्गों तक सीमित है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि राजधानी में यह हालत है तो मुफसिल नगरों में अंग्रेजी अखबारों की क्या हालत होगी? इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। अंग्रेजी अखबार दिल्ली, चंडीगढ़, मुम्बई आदि उत्तर भारतीय नगरों के बलबूते पर खड़े हैं। इन अखबारों को दरअसल शासकीय सहायता और संरक्षण प्राप्त है। इसलिए इन्हें शासकीय प्रतिष्ठा प्राप्त है। ये प्रकृति में क्षेत्रिय हैं (टाइम्स ऑफ इंडिया के विभिन्न संस्करण इसके उदाहरण है।) मूल स्वभाव में भी ये समाचारोन्मुखी न होकर मनोरंजन करने में ही विश्वास करते हैं । लेकिन शासकीय व्यवस्था ने इनका नामकरण राष्ट्रीय किया हुआ है। जिस प्रकार अपने यहां गरीब आदमी का नाम कुबेरदास रखने की परंपरा है। जिसकी दोनों ऑंखें गायब हैं वह कमलनयन है। भारतीय भाषा का मीडिया जो सचमुच राष्ट्रीय है वह सरकारी रिकार्ड में क्षेत्रीय लिखा गया है। शायद इसलिए कि गोरे बच्चे को नजर न लग जाए माता पिता उसका नाम कालूराम रख देते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि इतिहास में क्रांतियाँ कालूरामों ने की हैं। गोरे लाल गोरों के पीछे ही भागते रहे हैं। अंग्रेजी मीडिया की नब्ज अब भी वहीं टिक-टिक कर रही है। रहा सवाल भारतीय पत्रकारिता के भविष्य का, उसका भविष्य तो भारत के भविष्य से ही जुड़ा हुआ है। भारत का भविष्य उज्जवल है तो भारतीय पत्रकारिता का भविष्य भी उज्ज्वल ही होगा। यहां भारतीय पत्रकारिता में हिंदी पत्रकारिता का समावेश भी हो जाता है।


५. हिन्दी पत्रकारिता:
हिन्दी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी है। हिन्दी पत्रकारिता के आदि उन्नायक जातीय चेतना, युगबोध और अपने महत् दायित्व के प्रति पूर्ण सचेत थे। कदाचित् इसलिए विदेशी सरकार की दमन-नीति का उन्हें शिकार होना पड़ा था, उसके नृशंस व्यवहार की यातना झेलनी पड़ी थी। उन्नीसवीं शताब्दी में हिन्दी गद्य-निर्माण की चेष्ठा और हिन्दी-प्रचार आन्दोलन अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भयंकर कठिनाइयों का सामना करते हुए भी कितना तेज और पुष्ट था इसका साक्ष्य ‘भारतमित्र’ (सन् 1878 ई, में) ‘सार सुधानिधि’ (सन् 1879 ई.) और ‘उचितवक्ता’ (सन् 1880 ई.) के जीर्ण पष्ठों पर मुखर है।
हिन्दी पत्रकारिता में अंग्रेजी पत्रकारिता के दबदबे को खत्म कर दिया है। पहले देश-विदेश में अंग्रेजी पत्रकारिता का दबदबा था लेकिन आज हिन्दी भाषा का परचम चंहुदिश फैल रहा है।
अनुक्रम:


1.          भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता का आरम्भ और हिन्दी पत्रकारिता:
भारतवर्ष में आधुनिक ढंग की पत्रकारिता का जन्म अठारहवीं शताब्दी के चतुर्थ चरण में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में हुआ। 1780 ई. में प्रकाशित हिके (Hickey) का "कलकत्ता गज़ट" कदाचित् इस ओर पहला प्रयत्न था। हिंदी के पहले पत्र उदंत मार्तण्ड (1826) के प्रकाशित होने तक इन नगरों की ऐंग्लोइंडियन अंग्रेजी पत्रकारिता काफी विकसित हो गई थी।
इन अंतिम वर्षों में फारसी भाषा में भी पत्रकारिता का जन्म हो चुका था। 18वीं शताब्दी के फारसी पत्र कदाचित् हस्तलिखित पत्र थे। 1801 में हिंदुस्थान इंटेलिजेंस ओरिऐंटल ऐंथॉलॉजी (Hindusthan Intelligence Oriental Anthology) नाम का जो संकलन प्रकाशित हुआ उसमें उत्तर भारत के कितने ही "अखबारों" के उद्धरण थे। 1810 में मौलवी इकराम अली ने कलकत्ता से लीथो पत्र "हिंदोस्तानी" प्रकाशित करना आरंभ किया। 1816 में गंगाकिशोर भट्टाचार्य ने "बंगाल गजट" का प्रवर्तन किया। यह पहला बंगला पत्र था। बाद में श्रीरामपुर के पादरियों ने प्रसिद्ध प्रचारपत्र "समाचार दर्पण" को (27 मई, 1818) जन्म दिया। इन प्रारंभिक पत्रों के बाद 1823 में हमें बँगला भाषा के समाचारचंद्रिका और "संवाद कौमुदी", फारसी उर्दू के "जामे जहाँनुमा" और "शमसुल अखबार" तथा गुजराती के "मुंबई समाचार" के दर्शन होते हैं।
यह स्पष्ट है कि हिंदी पत्रकारिता बहुत बाद की चीज नहीं है। दिल्ली का "उर्दू अखबार" (1833) और मराठी का "दिग्दर्शन" (1837) हिंदी के पहले पत्र "उदंत मार्तंड" (1826) के बाद ही आए। "उदंत मार्तंड" के संपादक पंडित जुगलकिशोर थे। यह साप्ताहिक पत्र था। पत्र की भाषा पछाँही हिंदी रहती थी, जिसे पत्र के संपादकों ने "मध्यदेशीय भाषा" कहा है। यह पत्र 1827 में बंद हो गया। उन दिनों सरकारी सहायता के बिना किसी भी पत्र का चलना असंभव था। कंपनी सरकार ने मिशनरियों के पत्र को डाक आदि की सुविधा दे रखी थी, परंतु चेष्टा करने पर भी "उदंत मार्तंड" को यह सुविधा प्राप्त नहीं हो सकी।


2.          हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण:

1826 ई. से 1873 ई. तक को हम हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। 1873 ई. में भारतेंदु ने "हरिश्चंद्र मैगजीन" की स्थापना की। एक वर्ष बाद यह पत्र "हरिश्चंद्र चंद्रिका" नाम से प्रसिद्ध हुआ। वैसे भारतेंदु का "कविवचन सुधा" पत्र 1867 में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास में महत्वपूर्ण भाग लिया था; परंतु नई भाषाशैली का प्रवर्तन 1873 में "हरिश्चंद्र मैगजीन" से ही हुआ। इस बीच के अधिकांश पत्र प्रयोग मात्र कहे जा सकते हैं और उनके पीछे पत्रकला का ज्ञान अथवा नए विचारों के प्रचार की भावना नहीं है। "उदंत मार्तंड" के बाद प्रमुख पत्र हैं :
बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तंड (1850), मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861), सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867), ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867), विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयागदूत (1871), बुंदेलखंड अखबर (1871), प्रेमपत्र (1872), और बोधा समाचार (1872)।
इन पत्रों में से कुछ मासिक थे, कुछ साप्ताहिक। दैनिक पत्र केवल एक था "समाचार सुधावर्षण" जो द्विभाषीय (बंगला हिंदी) था और कलकत्ता से प्रकाशित होता था। यह दैनिक पत्र 1871 तक चलता रहा। अधिकांश पत्र आगरा से प्रकाशित होते थे जो उन दिनों एक बड़ा शिक्षाकेंद्र था, और विद्यार्थीसमाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। शेष ब्रह्मसमाज, सनातन धर्म और मिशनरियों के प्रचार कार्य से संबंधित थे। बहुत से पत्र द्विभाषीय (हिंदी उर्दू) थे और कुछ तो पंचभाषीय तक थे। इससे भी पत्रकारिता की अपरिपक्व दशा ही सूचित होती है। हिंदीप्रदेश के प्रारंभिक पत्रों में "बनारस अखबार" (1845) काफी प्रभावशाली था और उसी की भाषानीति के विरोध में 1850 में तारामोहन मैत्र ने काशी से साप्ताहिक "सुधाकर" और 1855 में राजा लक्ष्मणसिंह ने आगरा से "प्रजाहितैषी" का प्रकाशन आरंभ किया था। राजा शिवप्रसाद का "बनारस अखबार" उर्दू भाषाशैली को अपनाता था तो ये दोनों पत्र पंडिताऊ तत्समप्रधान शैली की ओर झुकते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1867 से पहले भाषाशैली के संबंध में हिंदी पत्रकार किसी निश्चित शैली का अनुसरण नहीं कर सके थे। इस वर्ष कवि वचनसुधा का प्रकाशन हुआ और एक तरह से हम उसे पहला महत्वपूर्ण पत्र कह सकते हैं। पहले यह मासिक था, फिर पाक्षिक हुआ और अंत में साप्ताहिक। भारतेंदु के बहुविध व्यक्तित्व का प्रकाशन इस पत्र के माध्यम से हुआ, परंतु सच तो यह है कि "हरिश्चंद्र मैगजीन" के प्रकाशन (1873) तक वे भी भाषाशैली और विचारों के क्षेत्र में मार्ग ही खोजते दिखाई देते हैं।


3.          हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग : भारतेंदु युग
हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग 1873 से 1900 तक चलता है। इस युग के एक छोर पर भारतेंदु का "हरिश्चंद्र मैगजीन" था ओर नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा अनुमोदनप्राप्त "सरस्वती"। इन 27 वर्षों में प्रकाशित पत्रों की संख्या 300-350 से ऊपर है और ये नागपुर तक फैले हुए हैं। अधिकांश पत्र मासिक या साप्ताहिक थे। मासिक पत्रों में निबंध, नवल कथा (उपन्यास), वार्ता आदि के रूप में कुछ अधिक स्थायी संपत्ति रहती थी, परंतु अधिकांश पत्र 10-15 पृष्ठों से अधिक नहीं जाते थे और उन्हें हम आज के शब्दों में "विचारपत्र" ही कह सकते हैं। साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उनपर टिप्पणियों का भी महत्वपूर्ण स्थान था। वास्तव में दैनिक समाचार के प्रति उस समय विशेष आग्रह नहीं था और कदाचित् इसीलिए उन दिनों साप्ताहिक और मासिक पत्र कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे। उन्होंने जनजागरण में अत्यंत महत्वपूर्ण भाग लिया था।
उन्नीसवीं शताब्दी के इन 25 वर्षों का आदर्श भारतेंदु की पत्रकारिता थी। "कविवचनसुधा" (1867), "हरिश्चंद्र मैगजीन" (1874), श्री हरिश्चंद्र चंद्रिका" (1874), बालबोधिनी (स्त्रीजन की पत्रिक, 1874) के रूप में भारतेंदु ने इस दिशा में पथप्रदर्शन किया था। उनकी टीकाटिप्पणियों से अधिकरी तक घबराते थे और "कविवचनसुधा" के "पंच" पर रुष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेंदु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा दिया था। इसमें संदेह नहीं कि पत्रकारिता के क्षेत्र भी भारतेंदु पूर्णतया निर्भीक थे और उन्होंने नए नए पत्रों के लिए प्रोत्साहन दिया। "हिंदी प्रदीप", "भारतजीवन" आदि अनेक पत्रों का नामकरण भी उन्होंने ही किया था। उनके युग के सभी पत्रकार उन्हें अग्रणी मानते थे।
4.           भारतेंदु के बाद
भारतेंदु के बाद इस क्षेत्र में जो पत्रकार आए उनमें प्रमुख थे पंडित रुद्रदत्त शर्म, (भारतमित्र, 1877), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप, 1877), दुर्गाप्रसाद मिश्र (उचित वक्ता, 1878), पंडित सदानंद मिश्र (सारसुधानिधि, 1878), पंडित वंशीधर (सज्जन-कीर्त्ति-सुधाकर, 1878), बदरीनारायण चौधरी "प्रेमधन" (आनंदकादंबिनी, 1881), देवकीनंदन त्रिपाठी (प्रयाग समाचार, 1882), राधाचरण गोस्वामी (भारतेंदु, 1882), पंडित गौरीदत्त (देवनागरी प्रचारक, 1882), राज रामपाल सिंह (हिंदुस्तान, 1883), प्रतापनारायण मिश्र (ब्राह्मण, 1883), अंबिकादत्त व्यास, (पीयूषप्रवाह, 1884), बाबू रामकृष्ण वर्मा (भारतजीवन, 1884), पं. रामगुलाम अवस्थी (शुभचिंतक, 1888), योगेशचंद्र वसु (हिंदी बंगवासी, 1890), पं. कुंदनलाल (कवि व चित्रकार, 1891), और बाबू देवकीनंदन खत्री एवं बाबू जगन्नाथदास (साहित्य सुधानिधि, 1894)। 1895 ई. में "नागरीप्रचारिणी पत्रिका" का प्रकाशन आरंभ होता है। इस पत्रिका से गंभीर साहित्यसमीक्षा का आरंभ हुआ और इसलिए हम इसे एक निश्चित प्रकाशस्तंभ मान सकते हैं। 1900 ई. में "सरस्वती" और "सुदर्शन" के अवतरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के इस दूसरे युग पर पटाक्षेप हो जाता है।
इन 25 वर्षों में हमारी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकसित हुई। प्रारंभिक पत्र शिक्षाप्रसार और धर्मप्रचार तक सीमित थे। भारतेंदु ने सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक दिशाएँ भी विकसित कीं। उन्होंने ही "बालाबोधिनी" (1874) नाम से पहला स्त्री-मासिक-पत्र चलाया। कुछ वर्ष बाद महिलाओं को स्वयं इस क्षेत्र में उतरते देखते हैं - "भारतभगिनी" (हरदेवी, 1888), "सुगृहिणी" (हेमंतकुमारी, 1889)। इन वर्षों में धर्म के क्षेत्र में आर्यसमाज और सनातन धर्म के प्रचारक विशेष सक्रिय थे। ब्रह्मसमाज और राधास्वामी मत से संबंधित कुछ पत्र और मिर्जापुर जैसे ईसाई केंद्रों से कुछ ईसाई धर्म संबंधी पत्र भी सामने आते हैं, परंतु युग की धार्मिक प्रतिक्रियाओं को हम आर्यसमाज के और पौराणिकों के पत्रों में ही पाते हैं। आज ये पत्र कदाचित् उतने महत्वपूर्ण नहीं जान पड़ते, परंतु इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने हमारी गद्यशैली को पुष्ट किया और जनता में नए विचारों की ज्योति भी। इन धार्मिक वादविवादों के फलस्वरूप समाज के विभिन्न वर्ग और संप्रदाय सुधार की ओर अग्रसर हुए और बहुत शीघ्र ही सांप्रदायिक पत्रों की बाढ़ आ गई। सैकड़ों की संख्या में विभिन्न जातीय और वर्गीय पत्र प्रकाशित हुए और उन्होंने असंख्य जनों को वाणी दी।
आज वही पत्र हमारी इतिहासचेतना में विशेष महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने भाषा शैली, साहित्य अथवा राजनीति के क्षेत्र में कोई अप्रतिम कार्य किया हो। साहित्यिक दृष्टि से "हिंदी प्रदीप" (1877), ब्राह्मण (1883), क्षत्रियपत्रिका (1880), आनंदकादंबिनी (1881), भारतेंदु (1882), देवनागरी प्रचारक (1882), वैष्णव पत्रिका (पश्चात् पीयूषप्रवाह, 1883), कवि के चित्रकार (1891), नागरी नीरद (1883), साहित्य सुधानिधि (1894), और राजनीतिक दृष्टि से भारतमित्र (1877), उचित वक्ता (1878), सार सुधानिधि (1878), भारतोदय (दैनिक, 1883), भारत जीवन (1884), भारतोदय (दैनिक, 1885), शुभचिंतक (1887) और हिंदी बंगवासी (1890) विशेष महत्वपूर्ण हैं। इन पत्रों में हमारे 19वीं शताब्दी के साहित्यरसिकों, हिंदी के कर्मठ उपासकों, शैलीकारों और चिंतकों की सर्वश्रेष्ठ निधि सुरक्षित है। यह क्षोभ का विषय है कि हम इस महत्वपूर्ण सामग्री का पत्रों की फाइलों से उद्धार नहीं कर सके। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, सदानं मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, अंबिकादत्त व्यास और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की कलम से निकले हुए न जाने कितने निबंध, टिप्पणी, लेख, पंच, हास परिहास औप स्केच आज में हमें अलभ्य हो रहे हैं। आज भी हमारे पत्रकार उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपने समय में तो वे अग्रणी थे ही।


5.          तीसरा चरण : बीसवीं शताब्दी के प्रथम बीस वर्ष
बीसवीं शताब्दी की पत्रकारिता हमारे लिए अपेक्षाकृत निकट है और उसमें बहुत कुछ पिछले युग की पत्रकारिता की ही विविधता और बहुरूपता मिलती है। 19वीं शती के पत्रकारों को भाषा-शैलीक्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेजी और दूसरी ओर उर्दू के पत्रों के सामने अपनी वस्तु रखनी थी। अभी हिंदी में रुचि रखनेवाली जनता बहुत छोटी थी। धीरे-धीरे परिस्थिति बदली और हम हिंदी पत्रों को साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्व करते पाते हैं। इस शताब्दी से धर्म और समाजसुधार के आंदोलन कुछ पीछे पड़ गए और जातीय चेतना ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर लिया। फलत: अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में पहले दो दशकों में आचार्य द्विवेदी द्वारा संपादित "सरस्वती" (1903-1918) का नेतृत्व रहा। वस्तुत: इन बीस वर्षों में हिंदी के मासिक पत्र एक महान् साहित्यिक शक्ति के रूप में सामने आए। शृंखलित उपन्यास कहानी के रूप में कई पत्र प्रकाशित हुए - जैसे उपन्यास 1901, हिंदी नाविल 1901, उपन्यास लहरी 1902, उपन्याससागर 1903, उपन्यास कुसुमांजलि 1904, उपन्यासबहार 1907, उपन्यास प्रचार 19012। केवल कविता अथवा समस्यापूर्ति लेकर अनेक पत्र उन्नीसवीं शतब्दी के अंतिम वर्षों में निकलने लगे थे। वे चले रहे। समालोचना के क्षेत्र में "समालोचक" (1902) और ऐतिहासिक शोध से संबंधित "इतिहास" (1905) का प्रकाशन भी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। परंतु सरस्वती ने "मिस्लेनी" () के रूप में जो आदर्श रखा था, वह अधिक लोकप्रिय रहा और इस श्रेणी के पत्रों में उसके साथ कुछ थोड़े ही पत्रों का नाम लिया जा सकता है, जैसे "भारतेंदु" (1905), नागरी हितैषिणी पत्रिका, बाँकीपुर (1905), नागरीप्रचारक (1906), मिथिलामिहिर (1910) और इंदु (1909)। "सरस्वती" और "इंदु" दोनों हमारी साहित्यचेतना के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं और एक तरह से हम उन्हें उस युग की साहित्यिक पत्रकारिता का शीर्षमणि कह सकते हैं। "सरस्वती" के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और "इंदु" के माध्यम से पंडित रूपनारायण पांडेय ने जिस संपादकीय सतर्कता, अध्यवसाय और ईमानदारी का आदर्श हमारे सामने रखा वह हमारी पत्रकारित को एक नई दिशा देने में समर्थ हुआ।
परंतु राजनीतिक क्षेत्र में हमारी पत्रकारिता को नेतृत्व प्राप्त नहीं हो सका। पिछले युग की राजनीतिक पत्रकारिता का केंद्र कलकत्ता था। परंतु कलकत्ता हिंदी प्रदेश से दूर पड़ता था और स्वयं हिंदी प्रदेश को राजनीतिक दिशा में जागरूक नेतृत्व कुछ देर में मिला। हिंदी प्रदेश का पहला दैनिक राजा रामपालसिंह का द्विभाषीय "हिंदुस्तान" (1883) है जो अंग्रेजी और हिंदी में कालाकाँकर से प्रकाशित होता था। दो वर्ष बाद (1885 में), बाबू सीताराम ने "भारतोदय" नाम से एक दैनिक पत्र कानपुर से निकालना शुरू किया। परंतु ये दोनों पत्र दीर्घजीवी नहीं हो सके और साप्ताहिक पत्रों को ही राजनीतिक विचारधारा का वाहन बनना पड़ा। वास्तव में उन्नीसवीं शतब्दी में कलकत्ता के भारत मित्र, वंगवासी, सारसुधानिधि और उचित वक्ता ही हिंदी प्रदेश की रानीतिक भावना का प्रतिनिधित्व करते थे। इनमें कदाचित् "भारतमित्र" ही सबसे अधिक स्थायी और शक्तिशाली था। उन्नीसवीं शताब्दी में बंगाल और महाराष्ट्र लोक जाग्रति के केंद्र थे और उग्र राष्ट्रीय पत्रकारिता में भी ये ही प्रांत अग्रणी थे। हिंदी प्रदेश के पत्रकारों ने इन प्रांतों के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया और बहुत दिनों तक उनका स्वतंत्र राजनीतिक व्यक्तित्व विकसित नहीं हो सका। फिर भी हम "अभ्युदय" (1905), "प्रताप" (1913), "कर्मयोगी", "हिंदी केसरी" (1904-1908) आदि के रूप में हिंदी राजनीतिक पत्रकारिता को कई डग आगे बढ़ाते पाते हैं। प्रथम महायुद्ध की उत्तेजना ने एक बार फिर कई दैनिक पत्रों को जन्म दिया। कलकत्ता से "कलकत्ता समाचार", "स्वतंत्र" और "विश्वमित्र" प्रकाशित हुए, बंबई से "वेंकटेश्वर समाचार" ने अपना दैनिक संस्करण प्रकाशित करना आरंभ किया और दिल्ली से "विजय" निकला। 1921 में काशी से "आज" और कानपुर से "वर्तमान" प्रकाशित हुए। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1921 में हिंदी पत्रकारिता फिर एक बार करवटें लेती है और राजनीतिक क्षेत्र में अपना नया जीवन आरंभ करती है। हमारे साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में भी नई प्रवृत्तियों का आरंभ इसी समय से होता है। फलत: बीसवीं शती के पहले बीस वर्षों को हम हिंदी पत्रकारिता का तीसरा चरण कह सकते हैं।


6.          आधुनिक युग:
1921 के बाद हिंदी पत्रकारिता का समसामयिक युग आरंभ होता है। इस युग में हम राष्ट्रीय और साहित्यिक चेतना को साथ साथ पल्लवित पाते हैं। इसी समय के लगभग हिंदी का प्रवेश विश्वविद्यालयों में हुआ और कुछ ऐसे कृती संपादक सामने आए जो अंग्रेजी की पत्रकारिता से पूर्णत: परिचित थे और जो हिंदी पत्रों को अंग्रेजी, मराठी और बँगला के पत्रों के समकक्ष लाना चाहते थे। फलत: साहित्यिक पत्रकारिता में एक नए युग का आरंभ हुआ। राष्ट्रीय आंदोलनों ने हिंदी की राष्ट्रभाषा के लिए योग्यता पहली बार घोषित की ओर जैसे-जैसे राष्ट्रीय आंदोलनों का बल बढ़ने लगा, हिंदी के पत्रकार और पत्र अधिक महत्व पाने लगे। 1921 के बाद गांधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन मध्यवर्ग तक सीमित न रहकर ग्रामीणों और श्रमिकों तक पहुंच गया और उसके इस प्रसार में हिंदी पत्रकारिता ने महत्वपूर्ण योग दिया। सच तो यह है कि हिंदी पत्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों की अग्र पंक्ति में थे और उन्होंने विदेशी सत्ता से डटकर मोर्चा लिया। विदेशी सरकार ने अनेक बार नए नए कानून बनाकर समाचारपत्रों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया परंतु जेल, जुर्माना और अनेकानेक मानसिक और आर्थिक कठिनाइयाँ झेलते हुए भी हमारे पत्रकारों ने स्वतंत्र विचार की दीपशिखा जलाए रखी।
1921 के बाद साहित्यक्षेत्र में जो पत्र आए उनमें प्रमुख हैं स्वार्थ (1922), माधुरी (1923), मर्यादा, चाँद (1923), मनोरमा (1924), समालोचक (1924), चित्रपट (1925), कल्याण (1926), सुधा (1927), विशालभारत (1928), त्यागभूमि (1928), हंस (1930), गंगा (1930), विश्वमित्र (1933), रूपाभ (1938), साहित्य संदेश (1938), कमला (1939), मधुकर (1940), जीवनसाहित्य (1940), विश्वभारती (1942), संगम (1942), कुमार (1944), नया साहित्य (1945), पारिजात (1945), हिमालय (1946) आदि। वास्तव में आज हमारे मासिक साहित्य की प्रौढ़ता और विविधता में किसी प्रकार का संदेह नहीं हो सकता। हिंदी की अनेकानेक प्रथम श्रेणी की रचनाएँ मासिकों द्वारा ही पहले प्रकाश में आई और अनेक श्रेष्ठ कवि और साहित्यकार पत्रकारिता से भी संबंधित रहे। आज हमारे मासिक पत्र जीवन और साहित्य के सभी अंगों की पूर्ति करते हैं और अब विशेषज्ञता की ओर भी ध्यान जाने लगा है। साहित्य की प्रवृत्तियों की जैसी विकासमान झलक पत्रों में मिलती है, वैसी पुस्तकों में नहीं मिलती। वहाँ हमें साहित्य का सक्रिय, सप्राण, गतिशील रूप प्राप्त होता है।
राजनीतिक क्षेत्र में इस युग में जिन पत्रपत्रिकाओं की धूम रही वे हैं - कर्मवीर (1924), सैनिक (1924), स्वदेश (1921), श्रीकृष्णसंदेश (1925), हिंदूपंच (1926), स्वतंत्र भारत (1928), जागरण (1929), हिंदी मिलाप (1929), सचित्र दरबार (1930), स्वराज्य (1931), नवयुग (1932), हरिजन सेवक (1932), विश्वबंधु (1933), नवशक्ति (1934), योगी (1934), हिंदू (1936), देशदूत (1938), राष्ट्रीयता (1938), संघर्ष (1938), चिनगारी (1938), नवज्योति (1938), संगम (1940), जनयुग (1942), रामराज्य (1942), संसार (1943), लोकवाणी (1942), सावधान (1942), हुंकार (1942), और सन्मार्ग (1943),जनवार्ता (१९७२) इनमें से अधिकांश साप्ताहिक हैं, परंतु जनमन के निर्माण में उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है। जहाँ तक पत्र कला का संबंध है वहाँ तक हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि तीसरे और चौथे युग के पत्रों में धरती और आकाश का अंतर है। आज पत्रसंपादन वास्तव में उच्च कोटि की कला है। राजनीतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में "आज" (1921) और उसके संपादक स्वर्गीय बाबूराव विष्णु पराड़कर का लगभग वही स्थान है जो साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को प्राप्त है। सच तो यह है कि "आज" ने पत्रकला के क्षेत्र में एक महान् संस्था का काम किया है और उसने हिंदी को बीसियों पत्रसंपादक और पत्रकार दिए हैं।
आधुनिक साहित्य के अनेक अंगों की भाँति हमारी पत्रकारिता भी नई कोटि की है और उसमें भी मुख्यत: हमारे मध्यवित्त वर्ग की सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक औ राजनीतिक हलचलों का प्रतिबिंब भास्वर है। वास्तव में पिछले 140 वर्षों का सच्चा इतिहास हमारी पत्रपत्रिकाओं से ही संकलित हो सकता है। बँगला के "कलेर कथा" ग्रंथ में पत्रों के अवतरणों के आधार पर बंगाल के उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यवित्तीय जीवन के आकलन का प्रयत्न हुआ है। हिंदी में भी ऐसा प्रयत्न वांछनीय है। एक तरह से उन्नीसवीं शती में साहित्य कही जा सकनेवाली चीज बहुत कम है और जो है भी, वह पत्रों के पृष्ठों में ही पहले-पहल सामने आई है। भाषाशैली के निर्माण और जातीय शैली के विकास में पत्रों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है, परंतु बीसवीं शती के पहले दो दशकों के अंत तक मासिक पत्र और साप्ताहिक पत्र ही हमारी साहित्यिक प्रवृत्तियों को जन्म देते और विकसित करते रहे हैं। द्विवेदी युग के साहित्य को हम "सरस्वती" और "इंदु" में जिस प्रयोगात्मक रूप में देखते हैं, वही उस साहित्य का असली रूप है। 1921 ई. के बाद साहित्य बहुत कुछ पत्रपत्रिकाओं से स्वतंत्र होकर अपने पैरों पर खड़ा होने लगा, परंतु फिर भी विशिष्ट साहित्यिक आंदोलनों के लिए हमें मासिक पत्रों के पृष्ठ ही उलटने पड़ते हैं। राजनीतिक चेतना के लिए तो पत्रपत्रिकाएँ हैं ही। वस्तुत: पत्रपत्रिकाएँ जितनी बड़ी जनसंख्या को छूती हैं, विशुद्ध साहित्य का उतनी बड़ी जनसंख्या तक पहुँचना असंभव है।



६. पत्रकारिता को युगों की अवधि में:
पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी ने एक स्थान पर लिखा है कि “पत्रकारिता को युगों की अवधि में ठीक-ठीक निश्चित करना कोई आसान काम नहीं है । एक युग दूसरे युग से मिलजुल जाता है । की पत्र एक युग में आरंभ होता है, दूसरे युग में उसका यौवन प्रस्फुटित होता है और संभवतः तीसरे युग में उसका अंत भी हो जाता है ।”
वास्तव में हिंदी पत्रकारिता का तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर काल विभाजन करना कुछ कठिन कार्य है । सर्वप्रथम राधाकृष्ण दास ने ऐसा प्रारंभिक प्रयास किया था । उसके बाद ‘विशाल भारत’ के नवंबर 1930 के अंक में विष्णुदत्त शुक्ल ने इस प्रश्न पर विचार किया, किन्तु वे किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंचे । गुप्त निबंधावली में बालमुकुंद गुप्त ने यह विभाजन इस प्रकार किया –
६.१. बालमुकुंद गुप्त जी द्वारा:
प्रथम चरण – सन् 1845 से 1877
द्वितीय चरण – सन् 1877 से 1890
तृत्तीय चरण – सन् 1890 से बाद
६.२. डॉ. रामरतन भटनागर जी के शोधनुसार:
डॉ. रामरतन भटनागर ने अपने शोध प्रबंध ‘द राइज एंड ग्रोथ आफ हिंदी जर्नलिज्म’ काल विभाजन इस प्रकार किया है –
1. आरंभिक युग 1826 से 1867
2. उत्थान एवं अभिवृद्धि
प्रथम चरण (1867-1883) भाषा एवं स्वरूप के समेकन का युग
द्वितीय चरण (1883-1900) प्रेस के प्रचार का युग
3.विकास युग
प्रथम युग (1900-1921) आवधिक पत्रों का युग
द्वितीय युग (1921-1935) दैनिक प्रचार का युग
4.सामयिक पत्रकारिता – 1935-1945
उपरोक्त में से तीन युगों के आरंभिक वर्षों में तीन प्रमुख पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ, जिन्होंने युगीन पत्रकारिता के समक्ष आदर्श स्थापित किए । सन् 1867 में ‘कविवचन सुधा’, सन् 1883 में ‘हिन्दुस्तान’ तथा सन् 1900 में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन है ।
काशी नागरी प्रचारणी द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी साहित्य के वृहत इतिहास’ के त्रयोदय भाग के तृतीय खंड में यह काल विभाजन इस प्रकार किया गया है –
प्रथम उत्थान – सन् 1826 से 1867
द्वितीय उत्थान – सन् 1868 से 1920
आधुनिक उत्थान – सन् 1920 के बाद
‘ए हिस्ट्री आफ द प्रेस इन इंडिया’ में श्री एस नटराजन ने पत्रकारिता का अध्ययन निम्न प्रमुख बिंदुओं के आधार पर किया है –
1. बीज वपन काल
2. ब्रिटिश विचारधारा का प्रभाव
3. राष्ट्रीय जागरण काल
4. लोकतंत्र और प्रेस
६.३. डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र जी का अध्ययन:
डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र ने ‘हिंदी पत्रकारिता’ का अध्ययन करने की सुविधा की दृष्टि से यह विभाजन मोटे रूप से इस प्रकार किया है –
1. भारतीय नवजागरण और हिंदी पत्रकारिता का उदय (सन् 1826 से 1867)
2. राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति- दूसरे दौर की हिंदी पत्रकारिता (सन् 1867-1900)
3. बीसवीं शताब्दी का आरंभ और हिंदी पत्रकारिता का तीसरा दौर – इस काल खण्ड का अध्ययन करते समय उन्होंने इसे तिलक युग तथा गांधी युग में भी विभक्त किया ।
६.४. डॉ. रामचन्द्र तिवारी जी के शोधनुसार:
डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘पत्रकारिता के विविध रूप’ में विभाजन के प्रश्न पर विचार करते हुए यह विभाजन किया है –
1. उदय काल – (सन् 1826 से 1867)
2. भारतेंदु युग – (सन् 1867 से 1900)
3. तिलक या द्विवेदी युग – (सन् 1900 से 1920)
4. गांधी युग – (सन् 1920 से 1947)
5. स्वातंत्र्योत्तर युग (सन् 1947 से अब तक)
डॉ. सुशील जोशी ने काल विभाजन कुछ ऐसा प्रस्तुत किया है –
1. हिंदी पत्रकारिता का उद्भव – 1826 से 1867
2. हिंदी पत्रकारिता का विकास – 1867 से 1900
3. हिंदी पत्रकारिता का उत्थान – 1900 से 1947
4. स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता – 1947 से अब तक
उक्त मतों की समीक्षा करने पर स्पष्ट होता है कि हिंदी पत्रकारिता का काल विभाजन विभिन्न विद्वानों पत्रकारों ने अपनी-अपनी सुविधा से अलग-अलग ढंग से किया है । इस संबंध में सर्वसम्मत काल निर्धारण अभी नहीं किया जा सका है । किसी ने व्यक्ति विशेष के नाम से युग का नामकरण करने का प्रयास किया है तो किसी ने परिस्थिति अथवा प्रकृति के आधार पर । इनमें एकरूपता का अभाव है । अध्ययन की सुविदा के लिए हमने डॉ. सुशीला जोशी द्वारा किए गए काल विभाजन के आधार पर विश्लेषण किया।


7.          हिन्दी पत्रकारिता के भविष्य की दिशा:
आज जब हम हिन्दी पत्रकारिता की बात करते हैं तो यह जानकर आश्चर्य होता है कि शुरूआती दौर में यह ध्वज उन क्षेत्रों में लहराया गया था जिन्हें आज अहिन्दी भाषी कहा जाता है। कोलकाता का विश्वामित्र ऐसा पहला ध्वज वाहक था। उत्तर प्रदेश, बिहार और उन दिनों के सी.पी. बरार में भी अनेक हिन्दी अखबारों की शुरूआत हुई थी। लाहौर तो हिन्दी अखबारों का एक प्रकार से गढ बन गया था। इसका एक कारण शायद आर्यसमाज का प्रभाव भी रहा होगा। परंतु इन सभी अखबारों का कार्य क्षेत्र सीमित था या तो अपने प्रदेश तक या फिर कुछ जिलों तक। अंग्रेजी में जो अखबार उन दिनों निकलनी शुरू हुई उनको सरकारी इमदाद प्राप्त होती थी। वैसे भी यह अखबारें शासकों की भाषा में निकलती थीं इसलिए इनका रूतबा और रूआब जरूरत से ज्यादा था। चैन्नई का हिन्दू, कोलकाता का स्टेटसमैन मुम्बई का टाईम्स आफ इंडिया, लखनऊ का नेशनल हेराल्ड और पायोनियर, दिल्ली का हिन्दुस्तान टाईम्स और बाद में इंडियन एक्सप्रेस भी। ये सभी अखबार प्रभाव की दृष्टि से तो शायद इतने महत्वपूर्ण नहीं थे परंतु शासको की भाषा में होने के कारण इन अखबारों को राष्ट्रीय प्रेस का रूतबा प्रदान किया गया। जाहिर है यदि अंग्रेजी भाषा के अखबार राष्ट्रीय हैं तो हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के अखबार क्षेत्रीय ही कहलाएंगे। प्रभाव तो अंग्रजी अखबारों का भी कुछ कुछ क्षेत्रों में था परंतु आखिर अंग्रेजी भाषा का पूरे हिन्दुस्तान में नाम लेने के लिए भी अपना कोई क्षेत्र विशेष तो था नहीं। इसलिए अंग्रेजी अखबार छोटे होते हुए भी राष्ट्रीय कहलाए और हिन्दी के अखबार बड़े होते हुए भी क्षेत्रीयता का सुख-दुख भोगते रहे। परंतु पिछले दो दशकों में ही हिन्दी अखबारों ने प्रसार और प्रभाव के क्षेत्र में जो छलांगे लगाई हैं वह आश्चर्यचकित कर देने वाली हैं। जालंधर से प्रारंभ हुई हिन्दी अखबार पंजाब केसरी पूरे उत्तरी भारत में अखबार न रहकर एक आंदोलन बन गई है। जालंधर के बाद पंजाब केसरी हरियाणा से छपने लगी उसके बाद धर्मशाला से और फिर दिल्ली से।
जहां तक पंजाब केसरी की मार का प्रश्न है उसने सीमांत राजस्थान और उत्तर प्रदेश को भी अपने शिकंजे में लिया है। दस लाख से भी ज्यादा संख्या में छपने वाला पंजाब केसरी आज पूरे उत्तरी भारत का प्रतिनिधि बनने की स्थिति में आ गया है । जागरण तभी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर से छपता था और जाहिर है कि वह उसी में बिकता भी था परंतु पिछले 20 सालों में जागरण सही अर्थो में देश का राष्ट्रीय अखबार बनने की स्थिति में आ गया है। इसके अनेकों संस्करण दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, बिहार झारखंड, पंजाब, जम्मू कश्मीर, और हिमाचल से प्रकाशित होते हैं। यहां तक कि जागरण ने सिलीगुडी से भी अपना संस्करण प्रारंभ कर उत्तरी बंगाल, दार्जिलिंग, कालेबुंग और सिक्किम तक में अपनी पैठ बनाई है।
अमर उजाला जो किसी वक्त उजाला से टूटा था, उसने पंजाब तक में अपनी पैठ बनाई । दैनिक भास्कर की कहानी पिछले कुछ सालों की कहानी है। पूरे उत्तरी और पश्चिमी भारत में अपनी जगह बनाता हुआ भास्कर गुजरात तक पहुंचा है। भास्कर ने एक नया प्रयोग हिन्दी भाषा के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशन शुरू कर किया है। भास्कर के गुजराती संस्करण ने तो अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। दैनिक भास्कर ने महाराष्ट्र की दूसरी राजधानी नागपुर से अपना संस्करण प्रारंभ करके वहां के मराठी भाषा के समाचार पत्रों को भी बिक्री में मात दे दी है। एक ऐसा ही प्रयोग जयपुर से प्रकाशित राजस्थान पत्रिका का कहा जा सकता है, पंजाब से पंजाब केसरी का प्रयोग और राजस्थान से राजस्थान पत्रिका का प्रयोग भारतीय भाषाओं की पत्रिकारिता में अपने समय का अभूतपूर्व प्रयोग है। राजस्थान पत्रिका राजस्थान के प्रमुख नगरों से एक साथ अपने संस्करण प्रकाशित करती है। लेकिन पिछले दिनों उन्होंने चेन्नई संस्करण प्रकाशित करके दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रयोग को लेकर चले आ रहे मिथको को तोड़ा है। पत्रिका अहमदाबाद सूरत कोलकाता, हुबली और बैंगलूरू से भी अपने संस्करण प्रकाशित करती है और यह सभी के सभी हिंदी भाषी क्षेत्र है। इंदौर से प्रकाशित नई दुनिया मध्य भारत की सबसे बड़ा अखबार है जिसके संस्करण् अनेक हिंदी भाषी नगरों से प्रकाशित होते हैं।
यहां एक और तथ्य की ओर संकेत करना उचित रहेगा कि अहिंदी भाषी क्षेत्रों में जिन अखबारों का सर्वाधिक प्रचलन है वे अंग्रेजी भाषा के नहीं बल्कि वहां की स्थानीय भाषा के अखबार हैं। मलयालम भाषा में प्रकाशित मलयालम मनोरमा के आगे अंग्रेजी के सब अखबार बौने पड़ रहे हैं। तमिलनाडु में तांथी, उडिया का समाज, गुजराती का दिव्यभास्कर, गुजरात समाचार, संदेश, पंजाबी में अजीत, बंगला के आनंद बाजार पत्रिका और वर्तमान अंग्रेजी अखबार के भविष्य को चुनौती दे रहे हैं। यहां एक और बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, झारखंड इत्यादि हिन्दी भाषी राज्यों में अंग्रेजी अखबारों की खपत हिंदी अखबारों के मुकाबले दयनीय स्थिति में है। अहिंदी भाषी क्षेत्रों की राजधानियों यथा गुवाहाटी भुवनेश्वर, अहमदाबाद, गांतोक इत्यादि में अंग्रेजी भाषा की खपत गिने चुने वर्गों तक सीमित है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि राजधानी में यह हालत है तो मुफसिल नगरों में अंग्रेजी अखबारों की क्या हालत होगी? इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। अंग्रेजी अखबार दिल्ली, चंडीगढ़, मुम्बई आदि उत्तर भारतीय नगरों के बलबूते पर खड़े हैं। इन अखबारों को दरअसल शासकीय सहायता और संरक्षण प्राप्त है। इसलिए इन्हें शासकीय प्रतिष्ठा प्राप्त है। ये प्रकृति में क्षेत्रिय हैं (टाइम्स ऑफ इंडिया के विभिन्न संस्करण इसके उदाहरण है।) मूल स्वभाव में भी ये समाचारोन्मुखी न होकर मनोरंजन करने में ही विश्वास करते हैं । लेकिन शासकीय व्यवस्था ने इनका नामकरण राष्ट्रीय किया हुआ है। जिस प्रकार अपने यहां गरीब आदमी का नाम कुबेरदास रखने की परंपरा है। जिसकी दोनों ऑंखें गायब हैं वह कमलनयन है। भारतीय भाषा का मीडिया जो सचमुच राष्ट्रीय है वह सरकारी रिकार्ड में क्षेत्रीय लिखा गया है। शायद इसलिए कि गोरे बच्चे को नजर न लग जाए माता पिता उसका नाम कालूराम रख देते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि इतिहास में क्रांतियाँ कालूरामों ने की हैं। गोरे लाल गोरों के पीछे ही भागते रहे हैं। अंग्रेजी मीडिया की नब्ज अब भी वहीं टिक-टिक कर रही है। रहा सवाल भारतीय पत्रकारिता के भविष्य का, उसका भविष्य तो भारत के भविष्य से ही जुड़ा हुआ है। भारत का भविष्य उज्जवल है तो भारतीय पत्रकारिता का भविष्य भी उज्ज्वल ही होगा। यहां भारतीय पत्रकारिता में हिंदी पत्रकारिता का समावेश भी हो जाता है।
८. निष्कर्ष:
          हिन्दी पत्रकारिता का शुरूआती दौर में यह ध्वज उन क्षेत्रों में लहराया गया था जिन्हें आज अहिन्दी भाषी कहा जाता है। कोलकाता का विश्वामित्र ऐसा पहला ध्वज वाहक था। उत्तर प्रदेश, बिहार और उन दिनों के सी.पी. बरार में भी अनेक हिन्दी अखबारों की शुरूआत हुई थी। लाहौर तो हिन्दी अखबारों का एक प्रकार से गढ बन गया था। इसका एक कारण शायद आर्यसमाज का प्रभाव भी रहा होगा। परंतु इन सभी अखबारों का कार्य क्षेत्र सीमित था या तो अपने प्रदेश तक या फिर कुछ जिलों तक। अंग्रेजी में जो अखबार उन दिनों निकलनी शुरू हुई उनको सरकारी इमदाद प्राप्त होती थी। वैसे भी यह अखबारें शासकों की भाषा में निकलती थीं इसलिए इनका रूतबा और रूआब जरूरत से ज्यादा था। चैन्नई का हिन्दू, कोलकाता का स्टेटसमैन मुम्बई का टाईम्स आफ इंडिया, लखनऊ का नेशनल हेराल्ड और पायोनियर, दिल्ली का हिन्दुस्तान टाईम्स और बाद में इंडियन एक्सप्रेस भी। ये सभी अखबार प्रभाव की दृष्टि से तो शायद इतने महत्वपूर्ण नहीं थे परंतु शासको की भाषा में होने के कारण इन अखबारों को राष्ट्रीय प्रेस का रूतबा प्रदान किया गया। जाहिर है यदि अंग्रेजी भाषा के अखबार राष्ट्रीय हैं तो हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के अखबार क्षेत्रीय ही कहलाएंगे। प्रभाव तो अंग्रजी अखबारों का भी कुछ कुछ क्षेत्रों में था परंतु आखिर अंग्रेजी भाषा का पूरे हिन्दुस्तान में नाम लेने के लिए भी अपना कोई क्षेत्र विशेष तो था नहीं। इसलिए अंग्रेजी अखबार छोटे होते हुए भी राष्ट्रीय कहलाए और हिन्दी के अखबार बड़े होते हुए भी क्षेत्रीयता का सुख-दुख भोगते रहे।
          भारत में, जहाँ लगभग 80% आबादी ग्रामीण इलाक़ों में रहती है, देश की बहुसंख्यक आम जनता को खुशहाल और शक्तिसंपन्न बनाने में पत्रकारिता की निर्णायक भूमिका हो सकती है। लेकिन विडंबना की बात यह है कि अभी तक पत्रकारिता का मुख्य फोकस सत्ता की उठापठक वाली राजनीति और कारोबार जगत की ऐसी हलचलों की ओर रहा है, जिसका आम जनता के जीवन-स्तर में बेहतरी लाने से कोई वास्तविक सरोकार नहीं होता। पत्रकारिता अभी तक मुख्य रूप से महानगरों और सत्ता के गलियारों के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। ग्रामीण क्षेत्रों की ख़बरें समाचार माध्यमों में तभी स्थान पाती हैं जब किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा या व्यापक हिंसा के कारण बहुत से लोगों की जानें चली जाती हैं। ऐसे में कुछ दिनों के लिए राष्ट्रीय कहे जाने वाले समाचार पत्रों और मीडिया जगत की मानो नींद खुलती है और उन्हें ग्रामीण जनता की सुध आती जान पड़ती है। खासकर बड़े राजनेताओं के दौरों की कवरेज के दौरान ही ग्रामीण क्षेत्रों की ख़बरों को प्रमुखता से स्थान मिल पाता है। फिर मामला पहले की तरह ठंडा पड़ जाता है और किसी को यह सुनिश्चित करने की जरूरत नहीं होती कि ग्रामीण जनता की समस्याओं को स्थायी रूप से दूर करने और उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए किए गए वायदों को कब, कैसे और कौन पूरा करेगा। सूचना में शक्ति होती हैं। सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के जरिए नागरिकों को सूचना के अधिकार से लैस करके उन्हें शक्ति-संपन्न बनाने का प्रयास किया गया है। लेकिन जनता इस अधिकार का व्यापक और वास्तविक लाभ पत्रकारिता के माध्यम से ही उठा सकती है, क्योंकि आम जनता अपने दैनिक जीवन के संघर्षों और रोजी-रोटी का जुगाड़ करने में ही इस क़दर उलझी रहती है।
इसके लिए रेडियो को अपना मिशन महात्मा गाँधी के ग्राम स्वराज्य के स्वप्न को साकार करने को बनाना पड़ेगा और उसको ध्यान में रखते हुए अपने कार्यक्रमों के स्वरूप और सामग्री में अनुकूल परिवर्तन करने होंगे। निश्चित रूप से इस अभियान में रेडियो की भूमिका केवल एक उत्प्रेरक की ही होगी। रेडियो एवं अन्य जनसंचार माध्यम सूचना, ज्ञान और मनोरंजन के माध्यम से जनचेतना को जगाने और सक्रिय करने का ही काम कर सकते हैं। लेकिन वास्तविक सक्रियता तो ग्राम पंचायतों और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले पढ़े-लिखे नौजवानों और विद्यार्थियों को दिखानी होगी। इसके लिए रेडियो को अपने कार्यक्रमों में दोतरफा संवाद को अधिक से अधिक बढ़ाना होगा ताकि ग्रामीण इलाक़ों की जनता पत्रों और टेलीफोन के माध्यम से अपनी बात, अपनी समस्या, अपने सुझाव और अपनी शिकायतें विशेषज्ञों तथा सरकार एवं जन-प्रतिनिधियों तक पहुँचा सके। खासकर खेती-बाड़ी, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार से जुड़े बहुत-से सवाल, बहुत सारी परेशानियाँ ग्रामीण लोगों के पास होती हैं, जिनका संबंधित क्षेत्रों के विशेषज्ञ रेडियो के माध्यम से आसानी से समाधान कर सकते हैं। रेडियो को “इंटरेक्टिव” बनाकर ग्रामीण पत्रकारिता के क्षेत्र में वे मुकाम हासिल किए जा सकते हैं जिसे दिल्ली और मुम्बई से संचालित होने वाले टी.वी. चैनल और राजधानियों तथा महानगरों से निकलने वाले मुख्यधारा के अख़बार और नामी समाचार पत्रिकाएँ अभी तक हासिल नहीं कर पायी हैं।
          आखिर देश की 80 प्रतिशत जनता जिनके बलबूते पर हमारे यहाँ सरकारें बनती हैं, जिनके नाम पर सारी राजनीति की जाती हैं, जो देश की अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक योगदान करते हैं, उन्हें पत्रकारिता के मुख्य फोकस में लाया ही जाना चाहिए। मीडिया को नेताओं, अभिनेताओं और बड़े खिलाड़ियों के पीछे भागने की बजाय उस आम जनता की तरफ रुख़ करना चाहिए, जो गाँवों में रहती है, जिनके दम पर यह देश और उसकी सारी व्यवस्था चलती है। पत्रकारिता जनता और सरकार के बीच, समस्या और समाधान के बीच, व्यक्ति और समाज के बीच, गाँव और शहर की बीच, देश और दुनिया के बीच, उपभोक्ता और बाजार के बीच सेतु का काम करती है। यदि यह अपनी भूमिका सही मायने में निभाए तो हमारे देश की तस्वीर वास्तव में बदल सकती है।
          पत्रकारिता आम तौर पर नकारात्मक विधा मानी जाती है, जिसकी नज़र हमेशा नकारात्मक पहलुओं पर रहती है, लेकिन ग्रामीण पत्रकारिता सकारात्मक और स्वस्थ पत्रकारिता का क्षेत्र है। भूमण्डलीकरण और सूचना-क्रांति ने जहाँ पूरे विश्व को एक गाँव के रूप में तबदील कर दिया है, वहीं ग्रामीण पत्रकारिता गाँवों को वैश्विक परिदृश्य पर स्थापित कर सकती है। गाँवों में हमारी प्राचीन संस्कृति, पारंपरिक ज्ञान की विरासत, कला और शिल्प की निपुण कारीगरी आज भी जीवित है, उसे ग्रामीण पत्रकारिता राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर ला सकती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ यदि मीडिया के माध्यम से धीरे-धीरे ग्रामीण उपभोक्ताओं में अपनी पैठ जमाने का प्रयास कर रही हैं तो ग्रामीण पत्रकारिता के माध्यम से गाँवों की हस्तकला के लिए बाजार और रोजगार भी जुटाया जा सकता है। ग्रामीण किसानों, घरेलू महिलाओं और छात्रों के लिए बहुत-से उपयोगी कार्यक्रम भी शुरू किए जा सकते हैं जो उनकी शिक्षा और रोजगार को आगे बढ़ाने का माध्यम बन सकते हैं। इसके लिए ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी सृजनकारी भूमिका को पहचानने की जरूरत है।

1 comment:

  1. aap ka blog wakaie kabil-e-tarif hai hai..isse me copy right lga do

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