Tuesday, March 15, 2011

प्रकृति का मंथन..........

           आदिकालीन धर्म ने प्रकृति को ही धर्म का  मूल ग्रन्थ माना. जबकि उपरांत में प्रकट हुए लगभग सभी धर्मों और सम्प्रदायों ने, प्रकृति से हट कर, एक व्यक्ति अथवा कुछ धर्माचार्यों द्वारा प्रतिपादित वादों के ग्रंथों को ही धर्म ग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया. आदिकालीन धर्म ने माना, व्यक्ति की बौद्धिकता में भ्रम का समावेश रहता है. उसके द्वारा बनाये मत-मतांतर, निर्विवाद और निःसंदेह हमेशा नहीं हो सकते. प्रकृति के नियम संदेह से परे और निःसंदेह हैं. इसलिए प्रकृति को ही ईश्वर के द्वारा निरंतर लिखा जा रहा धर्म ग्रन्थ मानना चाहिए. प्रभु ही घट-घट वासी आत्मा के रूप में सम्पूर्ण सचराचर को प्रकट करते है. आत्मा होकर परमेश्वर ही प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के क्षणों को प्रकट करते हैं. इसलिए प्रकृति ही वह ग्रन्थ है जिसे आत्मा निरंतर लिख रहा है, और हम सब इस ग्रन्थ के अक्षर हैं.
                चूँकि प्रकृति ही मूल ग्रन्थ है, इसलिए तर्कशास्त्र एवं विचार मंथन को स्वतंत्र और व्यापक स्वरुप प्रदान किया जाना चाहिए.  वादों-विवादों, ताकों तथा प्रकृतिजन सख्यों को चिंतन की मथानियों से मथ कर ग्रन्थ की भाषाओं को पढ़ना होगा, इसलिए तर्कशास्त्र को भी धार्मिक स्वरुप प्रदान किया गया है. इश्वर को भी प्रकृति की कसौटी पर मनुष्यों के संदेह के कटघरे में खड़ा किया गया. धर्म भी तर्क और संदेह की कसौटियों से बाहर नहीं जा सका. जबकि दूसरे लगभग सभी धर्मों में तर्क करना गुनाह है, पाप है. तर्क अथवा संदेह करने वाले को नर्क की आग में जलना पड़ता है, प्रायश्चित करना पड़ता है. जबकि आदिकालीन सनातन धर्म सम्मत धर्म में तर्कशास्त्र को माना गया है. जो मनुष्य मात्र से परमेश्वर के रूप में पूजित होना चाहता है, उसे मनुष्य मात्र के संदेहों के कटघरे में भी खड़ा होना पड़ेगा. प्रकृतिजन सख्यों, तर्कों और प्रमाणों के उपरान्त ही उसे निःसंदेह रूप से ग्रहण किया जायेगा. आदिकालीन शिक्षा में धर्म को तर्कशास्त्र से जोड़ कर, एक जीवंत ग्रन्थ की कल्पना की गयी है. कागज के पन्नों पर मरे हुए अक्षरों की किताब बदल सकती है. परन्तु प्रकृति के नियम अकाट्य हैं. आदिकालीन धर्म ने प्रत्येक नई कोपल का, तर्कशास्त्र की कसौटियों पर, स्वागत किया तथा प्रत्येक सूखी हुई पत्ती को धरती पर गिर जाने दिया. सम्पूर्ण विश्व में धर्म और शिक्षा का यह स्वरुप अतीत तो क्या वर्तमान में भी देखने को नहीं आता है.
                 ऋग्वेद से लेकर महाभारत तथा श्रीमद्भागवतगीता तक अध्यात्म के इस विश्वविद्यालय ने, कोई ऐसी बात नहीं कही, जिसे उसने विश्वव्यापी तर्क और प्रमाणों के साथ सिद्ध न किया हो........ सत्य और धर्म को लेकर भी आदिकालीन धर्म की अपनी अलग एवं स्पष्ट मान्यताएं रही हैं. हमने जानना चाहा की सत्य क्या है? उत्तर मिला, "प्रकृति से बिलोया हुआ अमृत ही सत्य है. जब हमने इस बात को स्पष्ट रूप में जानना चाह तो, ऐसे में ऋग्वेद में भी यही मिला की "जब भी सत्य रूपी दही को बिलोया गया तो ऋतु रूपी मक्खन के कण प्रकट हुए. ऋतु रूपी मक्खन के इन कणों को, मक्खन के गोलों में परिणित किया, तो ऋचाएं बनी. मक्खन के गोलों को जिस पात्र में रखा गया, उस पात्र का नाम ऋग्वेद हुआ तथा मक्खन को भोगने वाला दृष्टा, ऋषि कहलाये.
             ऋक, ऋत तथा ऋग इन तीनों का अर्थ एक ही है. प्रश्न उठा, वह कौन सा दही था, जो बिलोया गया जिससे ऋत रूपी मक्खन प्रकट हुए? पुनः ऋग्वेद में जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश की गयी तो उत्तर मिलता है की, "सत्य आदि ऋषि है, ऋत आदि देव हैं."
              रहस्य खुल गए, ऋषि कहते हैं साधक को तथा देव कहते हैं साध्य को. एक सत्य साधक है जो सत्य है. एक सत्य साध्य है जो ऋत है. साधक प्रकृति है. जीव है. साध्य आत्मा है. अतः सत्य जो साधक है, वह प्रकृति स्वरुप है, इसलिए प्रकृति सा परिवर्तनीय है. इन दोनों का समागम ही सचराचर की लीला है. आत्मा और प्रकृति का ही मिलन जीवंत सचराचर है.
                प्रकृति और पुरुष के मिलन से शून्य में, क्षीरसागर में, ग्रह- नक्षत्र और ब्रह्माण्ड प्रकट होने लगे. वे परिक्रमाओं को प्राप्त हुए. संवत-सर जीवंत हुए. दिन और रात प्रकट हो गए. धरती प्रकट हुई! ऋत ने मोहा सत्य को. वे प्रणय सूत्र में बढ़ाते चले गए. पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, मनुष्य, प्रणयलीला द्वारा प्रकट होने लगे, प्रकट होते रहे हैं, प्रकट हो रहे है, और प्रकट होते रहेंगे........ प्रकृति कभी भी अपनी चल को रोकेगी नहीं............

2 comments:

  1. सच कहा आपने प्रकृति अपनी चाल कभी नहीं रोकती, उसने जो निर्धारण किया है वह होकर रहेगा, अच्छा लेख, स्वागत.

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  2. suryansh ji aapka swagat hai. yaha bhi aaye..... www.upkhabar.in/

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