Friday, February 04, 2011

Sanskar ka asar.........

                 संस्कार शब्द के मेरा तात्पर्य आचरण तथा व्यवहार के द्वारा ग्रहण किये गए सूक्ष्म स्वाभाव से है. गुलाब में गुलाब कि गंध ही गुलाब का संस्कार है. ठीक उसी प्रकार अगले जन्म का ज्ञानरूपी गुलाब नहीं जाता, परन्तु संस्कार रूप में गुलाब कि गंध अर्थात ज्ञान द्वारा अर्जित सूक्ष्म स्वाभाव अवश्य जाता है. कल्पना करें कि एक व्यक्ति सड़क पर चला जा रहा है, ठोकर लगने से वह गिर जाता पड़ता है, उसके मुंह से पहला शब्द क्या निकलेगा? जो उसका सूक्ष्म अर्जित संस्कार है, वही बाहर आएगा. धार्मिक संस्कार वाले व्यक्ति के मुंह से हे भगवान! हे राम! या हे अल्लाह! निकलेगा. दूषित संस्कार वाले व्यक्ति के मुंह से "अबे" के साथ कोई भद्दी गाली स्वतः प्रकट हो जाएगी. दूसरा उदाहरण देना चाहूँगा, शराब पीने वाले व्यक्तियों के विभिन्न आचरण, विभिन्न संस्कारों के रूप में प्रकट होने लगते हैं. शराब पी कर कवि कविता करने लगता है, चित्रकार चित्र बनाने लगता है. गन्दा व्यक्ति अपने संस्कार के अनुरूप सड़क पर खड़ा होकर, गन्दी गालियाँ देने लगता है, तथा भद्दा आचरण करने लगता है.
                शराब में न तो गाली थी, न ही कविता और न ही एक चित्रकार की क्षमता . इसी प्रकार परिस्थितियां जब अनायास किसी के सामने आती हैं तो उसकी पहली प्रतिक्रिया उसके सूक्ष्म अर्जित संस्कार का स्वरुप होती हैं. भले ही दूषित संस्कार वाला व्यक्ति सावधानी के समय में कुछ अच्छे व्यक्तित्व का प्रदर्शन क्यों न करे, विषम परिस्थितियों में अनायास, संस्कार घटनावश सामने आ ही जाते हैं. मै इसी संस्कार कि बात कर रहा हूँ. जो हमे अपनी विषम परिस्थितियों में सत्य रूप से सहज ही अपने आप से सामने आ जाते हैं. संस्कार शब्द से मेरा यही तात्पर्य है.

Humara Mud Aur Switch Dusre ke haath me?????

            अक्सर हम लोग बात करते है की अगला व्यक्ति बड़ा ही बोर है और उसने मेरा मूड ऑफ़ कर दिया, या मुझे  कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है. इस प्रकार की बातें रोजमर्रा की जिंदगी में बराबर सुनने में आती हैं. एक घटना मेरे साथ भी ऐसी ही घटी मुझसे मिलने आये एक मित्र ने मुझसे बोला कि यार मै कल ही आ गया होता परन्तु क्या बताउं फला व्यक्ति ने मेरा मूड ऑफ़ कर दिया, जिसके करण मै कल आ नहीं पाया.
            मुझे लगा कि वह व्यक्ति बड़ा ही बुद्धिमान है, जिसने तुम्हारा मूड ऑफ़ कर दिया. उसे पता था कि तुम्हारे मूड का बटन कहाँ लगा है? जिससे उसने तुम्हारे मूड का बटन ऑफ़ कर दिया. आश्चर्य लगता है कि हमे हमारे मूड का बटन नहीं मिला जिससे कि हम उसे ऑन कर सकते. कितनी बचकानी बात है कि लोग हमारे मूड का बटन ऑफ़ कर देते हैं और हमे उसे ऑन करना नहीं आता. इस अपरिपक्व मानसिकता का प्रदर्शन बड़े-बड़े ज्ञानीजनो से भी मैंने सुना है.
            मुझे लगता है कि साधना ही इस अपरिपक्व मानसिकता का एक मात्र उपाय है जिससे हम अपनी मानसिकता पर पूर्ण एवं परिपक्व नियंत्रण पा सकते हैं. साधना के द्वारा हमारे मूड का बटन हमारे द्वारा ही नियंत्रित होता है. उसे कोई बाहर वाला व्यक्ति ऑफ़ या ऑन नहीं कर सकता.

Wednesday, February 02, 2011

Footpaath

फुटपाथ! इस शीर्षक को पढने में आपके जहन में एक सवाल आ रहा होगा कि ये क्या बताना चाह रहा है. क्या कभी हमने सोचा है कि फुटपाथ कितना जरुरी है, हम भारतीयों के लिए? शायद नहीं!
        फुटपाथ की कमी को महसूस करना हो तो आप हज़रतगंज (लखनऊ) की सडकों पर निकल कर देख सकते हैं. शाम के वक़्त सडकों पर टहलते हुए अगर आपका दिल बोल दे कि यार मूंगफली खानी है, तो शायद आपके दिल को निराश ही होना होगा. सौंदर्यीकरण के नाम पर सड़कें चौड़ी कर दी गयी, विद्युत कि अथाह व्यवस्था सडकों को चकाचौंध करने के लिए कर दी गयी, और सडकों के किनारे से छोटी पूंजी वाले दुकानदारों को हटा कर उनसे उनकी रोजी रोटी को छीन लिया गया.
       भैया!! २ किलो आलू, १ किलो मटर, १/२ किलो टमाटर जल्दी से दे देना, मूंगफली कैसे लगाई? केले कैसे दे रहे हो? ऐसे सवाल हम सडकों के किनारे दुकान लगाये फुटपाथी दुकानदारों से ही बोलते है. ऐसे सवाल हम मल्टी  काम्प्लेक्स और बड़े-बड़े शापिंग माल में जाकर नहीं करते और न ही हम मोल-भाव ही करते हैं वहाँ, और वहाँ जाना निम्नवर्गीय परिवार कि पहुँच से बाहर भी है. हम सब अब तक यही सुनते आयें हैं कि हिन्दुस्तान गाँवों में बसता है. और गावों का मतलब तो यही होता है कि जमीन से जुड़ा और एक आम आदमी का होना, ऐसे में अगर आज बेरोजगारी के दलदल से आम आदमी अपने तरीके से (फुटपाथ पर दुकान लगाकर) बाहर आना चाहता है, और आपनी रोजी रोटी चलाना चाहता है तो क्या ये गलत है?
         फुटपाथ जहाँ पर लगी दुकानों  से मध्यम और निम्नवर्गीय परिवार अपने जरुरत के सामानों को लेता है, वँही वह एक परिवार को रोज़गार देने में सहायता करता है जिससे उस छोटी पूँजी वाले परिवार कि रोजी रोटी चलती है. तो यह क्यूँ गलत है?
         फुटपाथ गांव में लगे छोटे से मेले से लेकर बड़े-बड़े धार्मिक स्थलों तक देखने को मिलता है. कल्पना कीजिये कि बिना फुटपाथी दुकानदारों के ये स्थल कैसे लगेंगे? इन सब की पहचान पटरी दुकानदारों से ही शोभनीय होती है, ऐसे में अगर पटरी दुकानदारों को वहां से हटा दिया जाए तो ये सोच कहाँ तक सही रहेगी? आज पटरी दुकानदारों कि जगह बड़े-बड़े उद्योगपतियों ने और फुटपाथी दुकान कि जगह इन उद्योगपतियों के बड़े-बड़े शापिंग माल और मल्टी काम्प्लेक्सों ने ले लिया है. ऐसे में कैसे अपनी रोजी रोटी चलाएगा फुटपाथी दुकानदार?
       सरकार ने फेरी नीति के तहत पटरी दुकानदारों को फुटपाथ से हटा दिया है. यह मामला १-२ या ३ शहरों का नहीं है, यह मामला है भारत के ८०० शहरों का जहाँ सौंदर्यीकरण की, यातायात की दुहाई देकर सरकार ने फुटपाथी दुकानदारों की रोजी रोटी छीनी है. ऐसे में सरकार ने क्या कोई ऐसी नीति बनाई है जिससे उसकी आजीविका चल सके?
        मै सिर्फ २ बातें जानना चाहता हूँ पहली की सरकार सौंदर्यीकरण चाहती है, या गरीब और बेरोजगार लोगों को आजीविका देना चाहती है? दूसरी की वह पटरी दुकानदारों को हटाना चाहती है  या यातायात की व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहती है?
       
             मेरी समझ में फुटपाथ और फुटपाथी दुकानदारों को ख़त्म करना कोई विकल्प नहीं है. मै अब तक ये समझ नहीं पाया हूँ की सरकार हमेशा दोहरीकरण की नीति क्यूँ अख्तियार करती है? क्यूँ कोई ठोस विकल्प नहीं होता है सरकार के पास? क्यूँ हमेशा सरकारी महकमा घुटने टेक देता है पैसे वालों की योजनाओं के सामने? कब जागेगी सरकार आम और गरीब आदमी के लिए? आखिर कब?

Tuesday, February 01, 2011

Shaasan satta ki Bhukh aur Mtadheekaron ka Hann

आज राजनीतिज्ञों को शासन सत्ता कि भूख ने इस कदर हैवान बना दिया है, ३१ जनवरी को उत्तर प्रदेश सरकार ने एक अप्रत्याशित फैसला लिया जो कि पूरी तरह से मताधिकार का हनन करे वाला साबित होगा. जिसके दम से उन्हें कुर्सी तक पहुचने का रास्ता मिलता है वह उससे भी सिर्फ और सिर्फ अपने ही हांथों में रखना चाहते है, और उसके लिए लोक तंत्र को भी बलि चढ़ाने से पीछे नहीं हटना चाहते. इसका ताज़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश की सरकार ने दे दिया है. पंचायती चुनाव में अपने मन माफिक जीत हासिल  करने के बाद उसकी भूख कुछ इस तरह बढ़ी कि उत्तर प्रदेश की सरकार ने महापौर और नगर परिषद के चुनाव को अप्रत्यछ ढंग से कराने का ऐलान कर दिया है. ऐसा फैसला देश /राज्य की जनता के मताधिकारों का हनन नहीं कर रहा है, तो यह क्या है? क्या यही लोकतंत्र है?
हम देखते आयें हैं कि अप्रत्यछ चुनाव पर केवल और केवल धनबलियों, बाहुबलियों का ही होकर रह जाता है. इसका उदाहरण विधान परिषद  के चुनाव में साफ़ दिखता है. अप्रत्यछ चुनाव हमेशा से भ्रष्टाचार को नई दिशा देता रहा है. उत्तर प्रदेश सरकार का यह फैसला भी इसके लिए एक नई कड़ी का काम करेगा. यदि आज हर स्तर  के चुनाव को अप्रत्यछ ढंग से कराना ही सरकार कि मंशा है तो उसको कुछ ऐसा विकल्प बनाना होगा कि आने वाले विधान सभा/ लोक सभा के चुनाव भी अप्रत्यछ ढंग से और जनता के मताधिकार के बिना ही सम्पन्न कराए जा सकें. मै यह जानना चाहता हूँ कि जब सरकार ही भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के लिए नित नए नए हथकंडे अपनायेगी तो केंद्र/राज्य सरकार के कर्मचारी कैसे बेईमान नहीं होंगे, इसका क्या प्रमाण है? मेरी समझ में यह बहुत बड़ा संकट है और उतना ही बड़ा सवाल है लोकतंत्र में मताधिकार को बचा पाने के लिए. क्या ऐसे फैसले से लोक तंत्र सुरछित है? क्या मताधिकार का यही मतलब है?  इस सम्बन्ध में मै जनता से एक ही अपील करना कहता हूँ कि इस भ्रष्टाचार कि व्यवस्था से जितनी दूर रह सकें उतना ही अच्छा होगा हम आम जनता के लिए. जिस देश/राज्य कि जनता को मत का कोई अधिकार नहीं है तो सरकार को भी कोई जरुरत नहीं है कि वोह हम नागरिकों से कोई अपील करे. फैसला सरकार का होगा कि वह हमे मताधिकार का हक़ देती है या खुद को नागरिकों कि नज़रों में गिरता हुआ देखना चाहती है?