भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आधुनिक दुनिया के सबसे बड़े जन आन्दोलनों में से एक था। जिसने भारत के निर्माण में सबसे अहम् भूमिका निभाई। आन्दोलानोपरांत उपनिवेशवादी सामराज्य का पतन हुआ। विभिन्न धर्मों, वर्गों और विचारधाराओं के लोग एक जुट हुए, लेकिन एकजुटता का यह विचार किसी एक भाषा, धर्म या संस्कृति पर आधारित न होकर विविधता और मिश्रित संस्कृति पर आधारित थ. इसी विविधता में जो एक नाम मुझे सर्वोपरि नजर आता है वह है शहीद-ए -आज़म सरदार सिंह का। तेईस (२३) वर्ष छह (६) माह और सोलह (१६) की जिंदगी में इन्होंने उपनिवेशवादियों को यह बता दिया कि अमर होने के लिए लम्बी जिंदगी नहीं बल्कि बुलंद हौसले और सशक्त उद्देश्य की दरकार होनी चहिये।
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उपनिवेशवादियों की नींद उचाटने वाले सरदार भगत सिंह के ८२वें शहीद दिवस पर सज़ा से पहले न्यायालय में न्यायाधीश से अपने और अपने साथियों के लिए की गयी बहस में कैसे उन्होंने यह प्रमाणित किया कि अमरत्व के लिए चाहिए बुलंद हौसले और सशक्त उद्देश्य न की उद्देश्य विहीन जिंदगी।
"माई लार्ड हम न वकील हैं, न अंग्रेजी विशेषज्ञ और न हमारे पास डिग्रियां हैं। इसलिए हमसे शानदार भाषणों की आशा न की जाये। हमारी विनती है कि हमारे बयान की भाषा सम्बन्धी त्रुटियों पर ध्यान न देते हुए, उसके वास्तविक अर्थ को समझने का प्रयत्न किया जाये। दुसरे तमाम मुद्दों को हम अपने वकील पर छोड़ते हुए मै स्वयं इस मुद्दे पर अपने विचार प्रकट करूँगा। यह मुद्दा इस मुकद्दमे में बहुत महत्वपूर्ण है। मुद्दा यह है कि हमारी नीयत क्या थी और हम किस हद तक अपराधी हैं।
विचारणीय यह है कि असेम्बली में हमने जो दो बम फेंके, उनसे किसी व्यक्ति को शारीरिक या आर्थिक हानि नहीं हुई। इस दृष्टिकोण से हमे सज़ा दी गयी है, वह कठोरतम ही नहीं, बदला लेने की भावना से दी गयी है। यदि दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाये तो जब तक अभियुक्त की मनोभावना का पता न लगाया जाये उसके असली उद्देश्य का पता नहीं चल सकता। यदि उद्देश्य को पूरी तरह से भुला दिया जाये तो किसी के साथ न्याय नहीं हो सकता, क्योंकि उद्देश्य को नजरों में न रखने पर संसार के बड़े-बड़े सेनापति भी हत्यारे नज़र आयेंगे। सरकारी कर वसूल करने वाले अधिकारी चोर, जालसाज दिखाई देंगे और न्यायाधीशों पर भी क़त्ल करने का अभियोग लगेगा। इस तरह सामाजिक व्यवस्था और सभ्यता खून-खराबा, चोरी और जालसाजी बनकर रह जाएगी। यदि उद्देश्य की उपेक्षा की जाये तो हर धर्म प्रचारक झूठ का प्रचारक दिखाई देगा, और हर पैगम्बर पर अभियोग लगेगा की उसने करोड़ों भोले और अनजान लोगों को गुमराह किया। यदि उद्देश्य को भुला दिया जाये, तो हज़रत ईसा मसीह गड़बड़ी फ़ैलाने वाले, शांति भंग करने वाले और विद्रोह का प्रचार करने वाले दिखाई देंगे और कानून के शब्दों में वह खतरनाक व्यक्ति माने जायेंगे. अगर ऐसा हो, तो मानना पड़ेगा की इंसानियत की कुर्बानियां, शहीदों के प्रयत्न, सब बेकार रहे और आज भी हम उसी स्थान पर खड़े हैं, जहाँ पर आज से बीसियों शताब्दी पहले थे। क़ानून की दृष्टि से उद्देश्य का प्रश्न खासा महत्त्व रखता है।
माई लार्ड इस दशा में मुझे यह कहने की आज्ञा दी जाये कि जो हुकुमत इन कमीनी हरकतों में आश्रय खोजती है, जो हुकूमत व्यक्ति के कुदरती अधिकार छीनती है, उसे जिवीत रहने का कोई अधिकार नहीं है। अगर यह कायम है, तो आरजी तौर पर और हजारों बेगुनाहों का खून इसकी गर्दन पर है। यदि कानून उद्देश्य नहीं देखता तो न्याय नहीं हो सकता और न ही स्थाई शांति स्थापित हो सकती है। आटे में संखिया मिलाना जुर्म नहीं, यदि उसका उद्देश्य चूहे मारना हो, लेकिन यदि इससे किसी आदमी को मार दिया जाये, तो क़त्ल का अपराध बन जाता है। लिहाज़ा ऐसे कानूनों को, जो युक्ति पर आधारित नहीं और न्याय सिद्धांत के विरुद्ध हैं, उन्हें समाप्त कर देना चाहिए। ऐसे ही न्याय विरोधी कानूनों के कारण बड़े-बड़े श्रेष्ठ बौद्धिक लोगों ने बगावत के कार्य किये हैं।
हमारे मुकद्दमे के तथ्य बिलकुल सादे हैं। ८ अप्रैल १९२९ को हमने असेम्बली में दो बम फेंके। उनके धमाके से चंद लोगों को मामूली खरोंचे आई। चेंबर में हंगामा हुआ, सैकड़ों दर्शक और सदस्य बाहर निकल गए, कुछ देर बाद ख़ामोशी के साथ दर्शक गैलरी में बैठे रहे और हमने स्वयं अपने को प्रस्तुत किया की हमें गिरफ्तार कर लिया जाये। हमें गिरफ्तार कर लिया गया। अभियोग लगाये गये और हत्या करने के प्रयत्न में हमे सज़ा दी गयी। लेकिन बमों से ४-५ आदमियों को मामूली नुकसान पहुंचा. जिन्होंने यह अपराध किया, उन्होंने बिना किसी किस्म के हस्तक्षेप के अपने आपको गिरफ़्तारी के लिए पेश कर दिया। सेशन जज ने स्वीकार किया है कि यदि हम भागना चाहते, तो भागने में सफल हो सकते थे। हमने अपना अपराध स्वीकार किया और अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए बयान दिया। हमे सज़ा का भय नही है। लेकिन हम यह नहीं चाहते की हमे गलत समझा जाये। हमारे बयान से कुछ पैराग्राफ काट दिए गए हैं, यह वास्तविकता की दृष्टि से हानिकारक है।
समग्र रूप से हमारे व्यक्तव्य के अपराध से साफ होता है की हमारे दृष्टिकोण से हमारा देश एक नाज़ुक दौर से गुजर रहा है। इस दशा में काफी उंची आवाज़ में चेतावनी देने की जरुरत थी और हमने अपने विचारानुसार चेतावनी दी है। संभव है कि हम गलती कर रहे हों, हमारा सोचने का ढंग जज महोदय के सोचने के ढंग से भिन्न हो, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हमे अपने विचार प्रकट करने की स्वीकृति न दी जाये और गलत बातें हमारे साथ जोड़ी जायें।
'इंकलाब जिंदाबाद और सामराज्य मुर्दाबाद ' के सम्बन्ध में हमने जो व्याख्या अपने बयान में दी, उसे उडा दिया गया है हलाकि यह हमारे उद्देश्य का खास भाग है। इंकलाब जिंदाबाद से हमारा वह उद्देश्य नहीं था जो आम-तौर पर गलत अर्थ में समझा जाता है। पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज थी, जिसे हम प्रकट करना चाहते थे। हमारे इंकलाब का अर्थ पूँजीवादी युद्धों की मुसीबतों का अंत करना है। मुख्य उद्देश्य और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया समझे बिना किसी के सम्बन्ध में निर्णय देना उचित नहीं है। गलत बातें हमारे साथ जोड़ना अन्याय है।
इसकी चेतावनी देना बहुत आवश्यक था। बेचैनी रोज़-रोज़ बढ रही है। यदि उचित इलाज न किया गया, तो रोग खतरनाक रूप ले लेगा। कोई भी मानवीय शक्ति इसकी रोकथाम न कर सकेगी। अब हमने इस तूफ़ान का रुख बदलने के लिए यह कार्यवाही की। हम इतिहास के गंभीर अध्येता हैं। हमारा विश्वास है की यदि सत्ताधारी शक्तियां ठीक समय पर सही कार्यवाही करतीं, तो फ़्रांस और रूस की खूनी क्रांतियाँ न बरस पड़ती। दुनिया की कई बड़ी-बड़ी हुकूमतें विचारों के तूफानों को रोकते हुए खून-खराबे के वातावरण में डूब गयी। सत्ताधारी लोग परिस्थितियों के प्रवाह को बदल सकते हैं। हम पहले चेतावनी देना चाहते थे। यदि हम कुछ व्यक्तियों की हत्या करने के इच्छुक होते, तो हम अपने मुख्य उद्देश्य में विफल हो जाते।
माई लार्ड, इस नीयत और उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए हमने कार्यवाही की और इस कार्यवाही के परिणाम हमारे बयान का समर्थन करते हैं। एक और नुक्ता स्पष्ट करना आवश्यक है। यदि हमे बमों की ताकत के सम्बन्ध में कत्तई ज्ञान न होता, तो हम पण्डित मोती लाल नेहरू, श्री केलकर, श्री जेकर और श्री जिन्ना जैसे सम्माननीय राष्ट्रिय व्यक्तियों की उपस्थिति में क्यों बम फेंकते? हम नेताओं के जीवन को किस तरह खतरे में डाल सकते थे? हम पागल तो नहीं हैं? और अगर पागल होते, तो जेल में बंद करने के बजाय हमें पागल खाने में बंद किया जाता। बमों के सम्बन्ध में हमें निश्चित रूप से पूर्ण जानकारी थी। उसी कारण हमने ऐसा साहस किया। जिन बेंचों पर लोग बैठे थे, उन पर बम फेंकना कहीं आसन काम था, खाली जगह पर बमों को फेंकना निहायत मुश्किल था। अगर बम फेंकने वाले सही दिमागों के न होते या वे परेशान होते, तो बम खाली जगहों के बजाय बेंचों पर गिरते। तो मैं कहूँगा कि खाली जगह के चुनाव के लिए जो हिम्मत हमने दिखाई, उसके लिए हमें इनाम मिलना चाहिए। इन हालत में माई लार्ड हम सोचते हैं की हमे ठीक तरह समझा नहीं गया। आपकी सेवा में हम सजाओं में कमी कराने नहीं आये, बल्कि अपनी स्थिति स्पष्ट करने आये हैं। हम चाहते हैं की न तो हमसे अनुचित व्यवहार किया जाये, न ही हमारे सम्बन्ध में अनुचित राय दी जाये,. और रही बात हमारे लिए सज़ा की, तो हम तो मार्गदर्शक का काम करने आये थे हमारे लिए सज़ा या मौत कोई मायने नहीं रखती।"
इन अमर शब्दों में हताशा का बोध कहीं महसूस भी नहीं होता, सिवाय बुलंद हौसलों के। यदि वह महान क्रन्तिकारी चाहता तो मौत की माफ़ी की बात करता लेकिन नहीं। भगत सिंह संभावनाओं के जननायक थे। वे हमारे अधिकारिक, औपचारिक नेता तो नहीं बन पाए शायद यही वह वजह है की सब चाहे वह अंग्रेज हुक्मरान रहें हो या फिर भारतीय दोनों उनसे खौफ खाते प्रतीत होते है. आज जरूरत है उनके विचारों को क्रियान्वित करने की, लेकिन उनके विचारों को क्रियान्वित करने में सरकारी कानूनों की घिगघी है बंध जाती है। भगत सिंह ने इतने अनछुए सवालों को स्पर्श किया है की उन पर वृहद् शोध की जरूरत है साथ ही साथ उनके विचारों पर हम कैसे चले इसके लिए बौधिक और जन आन्दोलनों की जरूरत है। जिससे उनकी अमरता और बलिदान का अमरत्व हम सभी को मार्गदर्शित करता रहे।
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