प्रेम वैसे तो अपनी अलग ही पहचान रखता है, लेकिन पाश्चात्य सभ्यता के चलते हम भी इसे एक पर्व के रूप में मनाने लगे हैं. जिसका प्रमाण फरवरी माह में हमे देखने को मिला है.... फरवरी माह अब मुझे ऐसा लगता है की आने वाले कुछ सालों में प्रेम माह के नाम से न जाना जाने लगे.... प्रेम एक ऐसा शब्द जिसकी जिसकी न तो कोई परिभाषा है, न कोई सिद्धांत और न ही प्रेम को किसी शास्त्र में पिरोया गया है… कबीर जी ने शायद ठीक ही कहा है:
“पोथी पढ़ -पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय.
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय.”
आइये प्रेम के कुछ पहलुओं से रूबरू होने की कोशिश करते हैं शायद आज-कल का जो प्रेम है वह कुछ मायनों में सही रस्ते पर आ सके:
- बस प्रेम एक अनुभव है, प्रेम एक रस है जो हमेशा दूसरों
को तृप्त करने पर विश्वास रखता है वहीँ दूसरी तरफ अहंकार एक खालीपन है जो कभी भी पूर्ण नहीं हो पाता. - अहंकार हमेशा अपने से बड़ों को प्रेम करने की कोशिश करता है, अपने से बड़ों से ही सम्बन्ध जोड़ता है . प्रेम के लिए कोई छोटा-बड़ा नहीं होता, जो आ जाये उसी से सम्बन्ध जोड़ लेता है… ऐसा होता है प्रेम.
- प्रेम हमेशा झुकने को राजी है, अहंकार कभी भी झुकने को राजी नहीं है . अहंकार के पास जायेंगे तो उसके हाथ और ऊपर उठ जाते हैं, ताकि हम उसे छू न पायें. क्यूंकि जिसे छू लिया जाये वह छोटा है, कुछ इस तरह से परिभाषित करता है अहंकार अपने आपको.
- प्रेम जब कुछ दे पाता है तो उसे ख़ुशी मिलती है, वह खुश होता है लेकिन अहंकार जब भी कुछ ले पाता है, तभी खुश होता है… प्रेम जिसके पास होता है वह अपने आपमें सम्राट होता है जबकि अहंकार दिन-प्रतिदिन दिन और दरिद्र हो जाता है… कुछ ऐसा अंतर होता है इन दोनों में.
- प्रेम जब भी किसी दूसरों के लिए छाया बनता है तो वह आनंदित होता है…. परन्तु अहंकार जब किसी से उसकी छाया को छीन लेता है तभी उसे आनंद आता है… ये नजरिया होता है प्रेम का.
- प्रेम निरंतर प्रतीक्षा करता है, प्रेम एक प्रतीक्षा है जबकि अहंकार महत्वकांक्षा..
- अहंकार एक प्रयोजन है, यदि प्रयोजन पूरा होता है तभी आना चाहता है नहीं तो नहीं… यद्यपि प्रेम निष्प्रयोजन है, प्रेम अपने में ही प्रयोजन है… उसे कोई लालसा नहीं होती.
- प्रेम कुछ रोकना नहीं चाहता, जो रोक ले वह प्रेम नहीं… अहंकार रोकता है. प्रेम तो बेशर्त देता है.
- अहंकार रुपया मांगता है, क्यूँकि रुपया शक्ति है. अहंकार शक्ति मांगता है. अहंकार पाकर भी आनंदित नहीं होता. प्रेम अपने आपको मिटा कर भी, टूटकर भी खुश होता है…
क्या हमने पूरे माह इसी प्रेम का उत्सव मनाया है? क्या हमारे प्रेम का यही मानक है...? अगर नहीं तो इतना दिखावा किस बात का...?
Atul Kumar
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