वैसे तो उत्तर प्रदेश परिवहन निगम यात्री देवो भव: का राग अलापता रहता है परंतु यात्रियों की सुविधाओं से कोई मतलब नहीं होता यह बात ठीक वैसे है जैसे कि हाथी के दिखाने वाले दांत। इसका ताजा उदाहरण कैसरबाग से बहराइच जा रही बाराबंकी डिपो की बस संख्या यूपी 75 ऍम 5729 मैं देखने को मिला जब एक यात्री की बस किसी कारण से छूट गई थी, जिसे 5729 के परिचालक ने गंतव्य का टिकट देख कर और उसकी आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए बिठा तो लिया परन्तु देवीपाटन पर क्षेत्र के यातायात निरीक्षक राम मनोरथ और उनके साथी के0 सोनकर सहकर्मियों ने कैसरगंज के आगे टोल प्लाजा पर लगभग 11:30 बजे बस निरीक्षण किया तो निरीक्षण के दौरान उस यात्री का टिकट देखने के बाद भी उस यात्री को बिना टिकट मानते हुए उसका टिकट बनवाया और उस पर जबरदस्ती ₹50 की पेनल्टी भी लगाई, वो भी गाड़ी में सवार 35 यात्रियों के दबाव में नहीं तो यह पेनाल्टी टिकट के 10 गुने की होती। उस बस के परिचालक ने बताया कि यदि यात्रियों के द्वारा बीच में नहीं बोला गया होता तो ₹748 मुझे जमा करने पड़ते और डब्लू टी का केस खत्म कराने के लिए अभी ₹500 डिपो पर और देने पड़ेंगे।
अब सवाल यह उठता है कि निगम की साधारण बसों में जब किराया एक समान होता है और धनराशि भी निगम कोष में ही जमा होती है तो इस तरह की लालफीताशाही की मार यात्रियों और परिचालकों को क्यों झेलनी पड़ती है? वहीँ निगम अपनी बस बीच रास्ते में खराब हो जाने पर यात्रियों को घंटों इंतजार करवाता है और अगली बस के लिए बोलता है कि अगली बस आने दीजिए ट्रांसफर दिलवाया जाएगा। क्या उतनी ही सुविधा जो कि मात्र बैठने भर की होती है यात्रियों को मिल पाएगी पीछे से आने वाली बस में, वह तो पहले से ही यात्रियों से भरी होगी।
टिकट होने पर भी दूसरी बस में बैठने पर निगम के लाइसेंस धारी लुटेरे जिन्हें निगम प्रशासन ने यातायात निरिक्षण की जिम्मेदारी सौंपी है, यात्रियों को बिना टिकट मान लेते हैं, तो दूसरी बस में ट्रांसफर पर रोक क्यों नहीं लगाते? और क्यों नहीं दूसरीखाली बस का इंतजाम करवाते?
निगम प्रशासन से लेकर विभागीय मंत्री तक को सिर्फ यही लगता है कि परिचालक वो भी यदि संविदा का है तो चोर होता है और यात्री भी दस-बीस रुपये बचाने की कोशिश करता है, परन्तु वो यह नहीं जानना चाहते हैं डिपो में तैनात ड्यूटी रूम से लेकर सभी पटलों पर निगम के जो अपने सगे बेटे बैठे हैं बिना दाम लिए काम नहीं करना चाहते, और सड़क पर घूम रहे टी०यस०/ टी०आई० जिन्हें हाथों में डायरी थमा दी गई है, और जिम्मेदारी दी गई है कि यातायात व्यवस्था को सुगम बनाने और यात्रियों की सुविधा को ध्यान में रखे, सिर्फ वसूली का मकसद ध्यान रहता है। नहीं तो मनमाने ढंग से यात्रियों पर, संविदा परिचालकों पर दबाव बना कर निगम कोष में काली कमाई को जमा कराने का काम कारते हैं।
निगम प्रशासन की खास बात यह है कि इसे संविधान की, न्यायालयों के आदेशों की, श्रम नियमावली से कोई लेना-देना नहीं, इसके सारे के सारे नियम और कानून अपने फायदे के लिए होते हैं। प्रदेश में हर 5-10 साल में सरकारें बदलती रहती हैं, जो सुधार और विकास के बड़े-बड़े दावे करती हैं चुनाव से पहले और सत्ता में आने के बाद उसी सरकार और सरकार के मंत्री सब कुछ जानने के बाद भी आँख और कान बंद कर सिर्फ माहवारी का इन्तजार करते हैं। इन्हें यात्रियों की सुवुधाओं से, संविदा परिचालकों के भविष्य से, संविदा परिचालक के जीवन स्तर से कोई लेना-देना नहीं। निगम प्रशासन और विभागीय मंत्री को सालाना अरबों की कमाई से मतलब है, बाकी चाहे वर मरे या कन्या वही कहावत को चरित्रार्थ होना है।
No comments:
Post a Comment